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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
में परप्रकाशक नहीं है, लेकिन स्व-पर्याय को ( ज्ञान अवस्था को ) प्रकाशता हैं। इस प्रकार ज्ञान का ही सब ओर चमत्कार है। और ज्ञान वो ही आत्मा की विशिष्टता है । । ३३२ ।।
( आत्मधर्म गुजराती, वर्ष १, अंक १०–११, भाद्रपद २०००, पर्यूषण अंक, पृष्ठ नं. १८० )
* कुछ विद्वान कहते हैं- जो आत्मा को पर का कर्त्ता न माने वह दिगम्बर जैन नहीं है। अरे प्रभु ! यह तू क्या कहता है ? ये दिगम्बराचार्य क्या कहते हैं? यह तो देख । अहाहा.... ! तू कर्त्ता तो नहीं परन्तु वास्तव में तो पर का जाननेवाला भी नहीं है । जाननेवाली पर्याय जाणक कोजाणनार को जानती हुई सत्पने उत्पन्न होती है ।। ३३३ ।।
(गुजराती अध्यात्म प्रवचन रत्नत्रय, पृष्ठ १२६ में से )
अज्ञानी कहते है कि जो परद्रव्य का कर्त्ता न माने वह दिगम्बर नहीं। जबकि यहाँ दिगम्बर आचार्य कहते हैं कि जो अपने को पर का जाननेवाला भी माने वह दिगम्बर जैन नहीं है। बहुत फरक है भाई ! परन्तु मार्ग तो ऐसा है प्रभु ! तू स्वभाव से ही भगवान स्वरूप है, तेरी शक्ति में अन्य की जरूरत नहीं है। तेरे को जानने में या परको जानने में परकी जरूरत नहीं है परन्तु तुझे स्वयं को जानने में तेरी शक्ति की जरूरत है (और वह तो तुझमे है ही ), अब इसमें विषय और कषाय का रस कहाँ रहा ? विषय कषाय का भाव तो परज्ञेय है, तेरा इससे कुछ सम्बन्ध नहीं है। वह तेरे में तो नहीं है लेकिन तेरा ज्ञेय भी नहीं
है।।३३४।।
(गुजराती अध्यात्म प्रवचन रत्नत्रय, पृष्ठ नं. १७६ )
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क्या कहते हैं? कि विशेष को देखनेवाली पर्यायार्थिक चक्षु बन्द कर
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* इन्द्रियज्ञान दुःखरूप है, दुःख का कारण है *
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