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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
जाननहार भी मैं हूँ, ज्ञान भी मैं हूँ और जनाने योग्य ज्ञेय भी मैं ही हूँ । इन तीनों के अभेद की दृष्टि होने से उसको स्वानुभव प्रकट हुआ है और उसमें उसकी अतीन्द्रिय आनन्द के स्वाद का वेदन प्रकट हुआ होता है। इसको समकित और धर्म कहते हैं। समझ में आया कुछ .... ?
देखो वहाँ सामान्य- विशेष दोनों एक साथ लिए है। क्योंकि प्रमाणज्ञान कराना है। प्रमाणज्ञान में वस्तु त्रिकाली सत् उसकी शक्तियाँ त्रिकाली सत् और उसकी वर्तमान पर्याय ये तीनों होकर वस्तु - आत्मा कही है। उसमें शरीर, मन, वाणी, कर्म और विकार इत्यादि नहीं आते हैं । । ३३० ।।
(श्री समयसार कलश २७१ के ऊपर पू. गुरुदेव श्री का १८वीं बार का प्रवचन, श्री गुजराती प्रवचनरत्नाकर, भाग ११ में से )
प्रश्न : ज्ञान का स्वरूप क्या है ?
उत्तर : जानना वो। ( जानने में राग, द्वेष वो ज्ञान का स्वरूप नहीं है ) मैं इसको ( पर को) जानता हूँ। ऐसा बोलने में आता है परन्तु वास्तव में पर को नहीं लेकिन अपनी ज्ञान की पर्याय को जानता है । । ३३१ ।। (श्री गुजराती आत्मधर्म, वर्ष १, अंक ६, वैशाख २,००० पृष्ठ नं. १०२ )
* सर्वत्र ज्ञान का ही चमकना है ।
कोई जीव पर को भोग सकता नहीं है, लेकिन कोई पर का वर्णन भी नहीं कर सकता; मात्र स्वयं ने पर का जो ज्ञान किया है उसका (अपने ज्ञान का) वर्णन कर सकता है, ज्ञानगुण के अलावा एक भी गुण का वर्णन नहीं हो सकता लेकिन जिस ज्ञान ने सुखगुण को नक्की किया है उस सुखगुण के ज्ञान का ” वर्णन कर सकता है। इस प्रकार से ज्ञान वास्तव
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* मैं पर को जानता हूँ - ऐसा मानना वह श्रद्धा का दोष है * Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com