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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
है और जाननहार जाननहार में रह रहा है। जाननहार स्वयं ज्ञानरूप होता हुआ अपने को जानता है। इस प्रकार आत्मा स्वयं ही जनानेयोग्य है; ज्ञानमात्र भाव ही स्वयं अपना ज्ञेय है। परपदार्थ को ज्ञेय कहना यह व्यवहार है बस।
और फिर स्वयं ही स्वयं का जाननहार होने से ज्ञानमात्र भाव ही ज्ञाता है। अहाहा....! पर के साथ परमार्थ से आत्मा का कोई सम्बन्ध नहीं है। जो जानने में आती है यह भी अपनी दशा, जाननेवाला भी स्वयं और ज्ञान भी स्वयं ही। अहाहा....! ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय, तीनों एकरूप। अन्तर में दृष्टि देने से ऐसे तीन भेद आत्मा के हैं ऐसा भी रहता नहीं है। परवस्तु ज्ञेय और मैं ज्ञाता-वह तो कहीं बहुत दूर रह गया। मैं ही ज्ञेय, मैं ही ज्ञान और मैं ही ज्ञाता-ऐसे तीन भेद भी अन्तरदृष्टि में समाते नहीं है, सब अभेद एकरूप अनुभवाता है। लो, इसका नाम धर्म है। जिसमें सामान्य विशेष का, अभेदपना प्राप्त-सिद्ध हुआ, वही धर्म है।
अहाहा....! ‘ऐसा ज्ञानमात्र भाव मैं हूँ' ऐसा अनुभव करनेवाला पुरुष अनुभवता है। ज्ञाता भी मैं, ज्ञान भी मैं और ज्ञेय भी मैं-ऐसे तीनों एक मैं हूँ-ऐसा जो ज्ञानमात्र भाव वहीं मैं हूँ ऐसा अनुभव करनेवाला पुरुष स्वयं को ( अपने को) अनुभवता है। ऐसा अनुभव होना वही धर्म है। अनुभव-अनु का अर्थ है अनुसरन करके, भव का अर्थ है भवन होना। आत्मा को-ज्ञानमात्रवस्तु को अनुसरन करके होना-परिणमना, वही अनुभव है और वही धर्म है। इसके सिवाय राग का अनुसरन करके होनेरूप जो अनेक क्रियाएँ हैं वह सब संसार है। वह सब अरण्यरोदन जैसा है।
अहाहा...! अनुभव करनेवाला पुरुष ऐसा अनुभव करता है कि
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*पर को जानते हुए ज्ञान भी नहीं है, सुख भी नहीं है।
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