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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
होती है,' स्वयं के अस्तित्व में दया, दान आदि के भाव और शरीर, मन, वाणी इत्यादी परज्ञेयों का प्रवेश नहीं है। ये तो भिन्न पर हैं; इसलिए जानने की क्रिया ही ज्ञान के द्वारा, आत्मा के द्वारा जानने में आती है। दया के परिणाम होते हैं उसको जाननेवाली क्रिया आत्मा की है और वह ज्ञानक्रिया ज्ञान का ज्ञेय है, लेकिन दया का परिणाम परमार्थ से आत्मा का नहीं है और परमार्थ से वह आत्मा का ज्ञेय भी नहीं
अब किसी को ऐसा लगे कि यह तो कैसा धर्म है ? भूखे को भोजन देना, प्यासे को पानी देना, नग्न को कपड़ा देना और बीमारों की सेवा करना-ऐसी कोई बात हो तो समझ में आवे। अरे भाई! ये तो सब राग की क्रिया हैं। बापू ! उस समय जड़ की क्रिया तो जड़ में होने योग्य हुई हैं वह क्रिया तेरी नहीं और राग की क्रिया भी तेरी नहीं है। अरे! उस समय राग का ज्ञान हुआ यह ज्ञान राग का नहीं, राग उसमें घुसा नहीं है। जानने की क्रिया तेरे अस्तित्व में हुई है, वह तेरी है और सचमुच वह तेरा ज्ञेय है रागादि परमार्थ से तेरा ज्ञेय नहीं है। समझ में आया कुछ....?
अज्ञानी जीवों को इतना सब (दया, दान, आदि को) उलांघकर यहाँ (ज्ञानभाव में) आना बड़ा मेरुपर्वत उठाने जैसा लगता है, लेकिन इसमें तेरा हित है भाई!
अब कहते हैं-'इस प्रकार स्वयं ही स्वयं से जनाने योग्य होने से ज्ञानमात्र भाव ही ज्ञेयरूप है और स्वयं ही स्वयं का जाननहार होने से ज्ञानमात्र भाव ही ज्ञाता है-इस प्रकार ज्ञानमात्र, भाव ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता-इन तीनों भावों युक्त सामान्य-विशेष स्वरूप वस्तु है।'
देखो, यह सबका निचोड़ किया। जनाने योग्य परपदार्थ पर में रह रहे
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*इन्द्रियज्ञान पौद्गलिक है
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