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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
__ अहा! ऐसे अपने अस्तित्व की महिमा जाने बिना भाई! तू दया, दान, व्रत, तप कर करके सूख जाय, तो भी लेशमात्र भी धर्म होगा नहीं। अपने स्वरूप का माहात्म जाने बिना धर्म की क्रिया कभी भी हो सकती नहीं है।
छोटी उम्र की बात है। पालेज में पिताजी की दुकान थी। वो बन्द करके रात को महाराज उपाश्रय में आये हुए हों, वहाँ उनके पास जाते थे। वहाँ महाराज गाते थे:
“भूधरजी तुमको भूलारे भटकता हूँ भववन में, कुत्ते के भव में मैं बीनी खाया टुकड़ा, वहाँ भूख के वेधा भडका रे...” । ( “ भूधरजी तमने भूल्यो रे भटकु छु भववनमां, कुतराना भवमां में विणी खाधा कटका , त्यां भूखना बेठया भडकारे")
अब उसमें तत्व की कुछ खबर नहीं, लेकिन सुनकर उस बख्त खुशी-खुशी हो जाते थे। लोक में भी उसी जगह ऐसा ही चल रहा है न! स्वयं कौन और कैसा है उसकी खबर नहीं, करने लगे व्रत, तप, भक्ति, पूजा आदि क्योंकि उससे धर्म होगा, लेकिन उसमें धूल में भी धर्म नहीं होगा। मैं कौन हूँ उसकी खबर के बिना धर्म किस में होगा? बापू! मैं ज्ञानस्वरूप हूँ ऐसा भूलकर राग के कर्तापने में लगा रहे यह तो पागलपना है। पूरी दुनिया ऐसी पागल है। समझ में आया
कुछ!
अहाहा... ! यहाँ कहते हैं-' यह ज्ञान तरंगे ही ज्ञान के द्वारा ज्ञात
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* इन्द्रियज्ञान वास्तव में ज्ञेय भी नहीं है ।
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