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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
हैं, तो 'वह पर को जानने वाला है' ऐसा भी उसमें आया । अर्थात् स्व को तो जाना, लेकिन अब पर को जानना भी उसमें आया तो कहते हैं कि-पर को जानना ये उसमें नहीं आया। परन्तु पर सम्बन्धी का ज्ञान कि जो अपने को अपने से हुआ है ऐसे ज्ञायक को ज्ञान ने जाना है। इसलिए पर्याय ने ज्ञान को जाना है, इस जाननहार की पर्याय को उसने जाना है। समझ में आया कुछ ? बहुत कठिन काम है बापू । क्योंकि वीतराग सर्वज्ञ का मार्ग ही ऐसा हैं । । ३३७ ।।
( श्री ज्ञायक भाव पुस्तक में से पृष्ठ ४९ – ५० ) * यहाँ कहते हैं कि ' ज्ञेयाकार अवस्था में ' ज्ञेय को - राग को जानने की अवस्था में भी ज्ञायकपने जो जानने में आया है वह ज्ञायक की पर्यायपने जानने में आया है लेकिन राग की पर्याय तरीके जानने में नहीं आया है। तो कहते हैं कि ' ज्ञेयकृत अशुद्धता उसको नहीं है ' मतलब ? कि शरीर की क्रिया और राग होता है उस समय उस प्रकार का ज्ञान स्वयं परिणमता है और उसको (ज्ञान को ) जानता है, फिर भी वह ज्ञेयकृत अशुद्धता - पराधीनता ज्ञान के परिणमन को नहीं है। अब कहते हैं कि, ‘यह ज्ञान का परिणमन जो हुआ है उस ज्ञेयाकार अवस्था में ज्ञायकपने जो जानने में आया' - मतलब कि उसमें वह जाननहार ही जानने में आया है! ( जाणनारो जणायो छे ) परन्तु जनाय ऐसी चीज जानने में नहीं आती है ! जो जनाती है वो चीज जानने में नहीं आई है। परन्तु वह जाननहार ही वहाँ जानने में आया है। ऐसी गूढ़ अलौकिक बात है भाई ।। ३३८ । ।
(श्री ज्ञायक भाव पुस्तक में से पृष्ठ ५२ )
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अहा! जिसने अनन्त सिद्धों को अपनी पर्याय में स्थापित किया है और जिसको ज्ञान का - ज्ञायक का ज्ञान हुआ है उसका ज्ञान राग को और शरीर को भी जानता है परन्तु इससे उसे ज्ञेयकृत–प्रमेयकृत
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'इन्द्रियज्ञान आत्मा से सर्वथा भिन्न है*
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