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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है देखो, कोई निन्दा करे तो नाराज होता है और प्रशंसा करे तो खुश होता है, परन्तु निंदा तो शब्द रूप जड़ का परिणाम है और प्रशंसा भी जड़ शब्द की पर्याय है। भाई! ये निन्दा-प्रशंसा तो तेरी चीज नहीं है परन्तु ये तेरा ज्ञेय है और तू ज्ञायक है ऐसा भी नहीं है। जब ऐसा वस्तु स्वरूप है, तो फिर यह मेरा निंदक है और यह मेरा प्रशंसक है-यह बात कहाँ रही ? यह मेरी निंदा करता है और यह मेरी प्रशंसा करता है, वास्तव में ऐसा है ही नहीं। __अब कहते हैं-कैसा हूँ ? “ज्ञान ज्ञेय-कल्लोलवल्गन"-जीव ज्ञायक है, जीव ज्ञेयरूप हे, ऐसा जो वचन भेद उससे भेद को प्राप्त होता हूँ। भावार्थ इस प्रकार है कि-वचन का भेद हैं, वस्तु का भेद नहीं। देखो क्या कहा ? स्वयं ज्ञेय, स्वयं ज्ञान और स्वयं ही ज्ञाता-ऐसे तीन भेद वचन भेद से हैं, परन्तु वस्तु तो जैसी है वैसी है अर्थात् ज्ञेय भी मैं, ज्ञान भी मैं और ज्ञाता भी मैं, ऐसे तीनों मिलकर एक ही वस्तु मैं हूँ, परन्तु तीन वस्तु नहीं है। अहा! स्ववस्तु में परवस्तु तो नहीं है, परन्तु स्ववस्तु में तीन भेद भी नहीं हैं। ऐसा मार्ग है, इसने अनन्तकाल में सुना भी नहीं है। अहो! समयसार में आई हुई, यह बात लोकोत्तर-अलौकिक है। देखो, यहाँ तीन बातें हैं (१) परद्रव्य मेरा है और मैं पर का हूँ-ऐसा तो नहीं है। (२) परद्रव्य मेरा ज्ञेय है और मैं ज्ञायक हूँ-ऐसे भी नहीं है। (३) मुझमें ज्ञेय, ज्ञान और ज्ञाता-ऐसे वस्तुभेद भी नहीं है। मैं ज्ञेय हूँ, मैं ज्ञान हूँ, मै ज्ञाता हूँ-ऐसा जो भेद उपजे तो रागविकल्प उत्पन्न होता है, परन्तु वस्तु और वस्तु की दृष्टि में ऐसा भेद १६० *जिस बात से अनुभव होवे वही बात सत्य है Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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