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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
नहीं है, सब अभेद एक है।
अहाहा! पर-पदार्थ मेरे ज्ञेय हैं और में ज्ञायक हूँ, ये तो वस्तु में है ही नहीं, परन्तु वस्तु में जो तीन भेद हैं, वे भी नामभेद हैं। दृष्टि के विषय में ये तीन भेद हैं ही नहीं। जैसी यह वस्तुस्थिति है, वैसी अज्ञानी के ख्याल में नहीं आती, इसलिए उसकी धारणा से शास्त्र में अलग बात आती है, तो उसमें उसे विरोध भासित होता है। किसी को इससे विरोध हो तो हो, परन्तु यह तेरा ही विरोध है, दूसरे का विरोध दूसरा कौन करे ? दूसरी चीज में तेरा विरोध कहाँ जाता है कि तू दूसरे का विरोध करे ?
यहाँ कहते हैं-जीव ही ज्ञेयरूप है, जीव ही ज्ञायक है और जीव ही ज्ञाता है, ऐसे वचनभेद से भेद को पाता हूँ, अर्थात् ये तो कल्लोल अर्थात् वचन का भेद है, परन्तु वस्तु में भेद नहीं है। मैं ही ज्ञेय, मैं ही ज्ञान और मैं ही ज्ञाता-ऐसा वचन भेद कथनमात्र भेद है बाकए वस्तु तो अभेद ही है।।३२९ ।। (श्री समयसार कलश टीका, कलश २७१ के ऊपर प. गुरुदेव श्री का प्रवचन ता. २९.९.७७, गुजराती अध्यात्म प्रवचन रत्नत्रय, पृष्ठ १६६)
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* “ मैं पर को जानता हूँ” – यहाँ से संसार की शुरूआत होती है।
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