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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
प्रश्न : तो शास्त्र पढ़ना चाहिए या नहीं ?
उत्तर : स्व के लक्ष्य से ( स्व लक्ष के लिए) शास्त्र पढ़ना, शास्त्र अभ्यास करना-यह बात आती है, परन्तु उस समय जो ज्ञान हुआ, वह शास्त्र का ज्ञान है-ऐसा नहीं है। ज्ञान तो ज्ञान का है, शास्त्र का नहीं है, और ज्ञेय भी ज्ञान स्वयं ही है। ऐसी सूक्ष्म बात है।
प्रश्न : पहले ज्ञान की पर्याय में ऐसा ज्ञान नहीं था, परन्तु अब ऐसी वाणी सुनने पर ऐसा ज्ञान हुआ न ?
उत्तर : ना, ऐसा नहीं है। वह ज्ञान की पर्याय ही तेरा ज्ञेय है, और उसमें से ही तेरा नाम आया है, परन्तु परज्ञेय में से वाणी में से ज्ञान नहीं आया है। बात सूक्ष्म है, परन्तु जन्म-मरण के अन्त का मार्ग तो यही है प्रभु! तुझे किसके सामने देखना है ? यह देव मेरा, गुरु मेरा और शास्त्र मेरा-ऐसा तो वस्तस्वरूप में नहीं है, पर ये मेरे ज्ञेय हैं-ऐसा भी वस्तु स्वरूप में नहीं है। किसी को यह बात समझना कठिन लगे, इसलिए वह, यह तो निश्चय है, निश्चय है-ऐसे हँसी करके उड़ा दे, परन्तु भाई! निश्चय अर्थात् सत्य, परम सत्य। समझ में आया कुछ ? __ मैं अपने द्वारा ज्ञात होने योग्य हूँ, परन्तु पर के द्वारा जनाने योग्य नहीं हूँ। मेरा द्रव्य-गुण-पर्याय मेरे द्वारा जानने लायक है, इसलिए मैं ही मेरा ज्ञेय हूँ, परपदार्थ मेरा ज्ञेय नहीं है, ज्ञान भी मैं, ज्ञेय भी मैं और ज्ञाता भी मैं ही हूँ। यह परमार्थ सत्य है भाई! कहा है न कि " नाम भेद है, वस्तु भेद नहीं है।" अपना ज्ञेय कोई जुदी चीज है, ज्ञान जुदी चीज है और ज्ञाता जुदी चीज है-ऐसा नहीं है, परन्तु जो ज्ञेय है वही ज्ञान है, और वही ज्ञाता है। तीनों ही वस्तुपने एक ही हैं। यह तो भाई! वस्तु की स्वतंत्रता की परिपूर्णता की पराकाष्टा है।
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* इन्द्रियज्ञान विभाव है इसलिये उसका निषेध कराया है
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