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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
नहीं। जबकि यहाँ दिगंबर आचार्य कहते हैं कि जो अपने को पर का जानने वाला भी माने वह दिगम्बर जैन नहीं। बहुत फेर है भाई! परन्तु मार्ग तो ऐसा है प्रभू! तू स्वभाव से ही भगवान स्वरूप है, तेरी शक्ति में अन्य की जरूरत नहीं है, तुझे जानने में कि पर को जानने में पर की जरूरत नहीं है परन्तु तुझे स्वयं को जानने में तेरी शक्ति की जरूरत है ( और वह तो तुझमें है ही) अब इसमें विषय और कषाय का रस कहाँ रहा ? विषय का भाव तो परज्ञेय है, तुझे इससे कुछ सम्बन्ध नहीं। वह तेरे में तो नहीं, लेकिन तेरा ज्ञेय भी नहीं है।
यहाँ कहते हैं कि मैं " ऐसा ज्ञेयस्वरूप हूँ” कैसा ज्ञेयस्वरूप हूँ ? कि ज्ञानशक्ति रूप मैं हूँ, ज्ञेय शक्ति रूप मैं हूँ और अनन्त गुणों की ज्ञाता शक्ति रूप भी मैं हूँ-ऐसा मैं ज्ञेयरूप हूँ, परन्तु परज्ञेय रूप में नहीं हूँ। अहो! गजब बात है। केवली परमात्मा और उनके आढ़तिया दिगम्बर संतों के सिवा ऐसी बात कौन करे ? जगत को ठीक पड़े या न पड़े समाज समतोल रहे या ना रहे वस्तुस्थिति तो यही है।
देखो, राजमल जी इसके भावार्थ में क्या कहते हैं ? " भावार्थ इस प्रकार है कि मैं अपने स्वरूप को वेद्य-वेदक रूप से जानता हूँ, इसलिए मेरा नाम ज्ञान, मैं आप द्वारा जनाने योग्य हूँ, इसलिए मेरा नाम ज्ञेय, ऐसी दो शक्तियों से लेकर अनन्त शक्ति रूप हूँ, इसलिए मेरा नाम ज्ञाता। ऐसा नाम भेद है, वस्तु भेद नहीं है।”
क्या कहा ? वेद्य अर्थात जानने लायक है वो और वेदक अर्थात जानने वाला है वो मैं ही हूँ, इसलिए मेरा नाम ज्ञान है। अहाहा! स्वज्ञेय को मैं जानता हूँ, इसलिए मैं ज्ञान हूँ। तथा मैं अपने स्वयं के द्वारा ही जनाने योग्य हूँ इसलिए मैं ज्ञेय हूँ। ऐसी बात है भाई! शास्त्र से तो मेरा ज्ञान नही है परन्तु शास्त्र मेरा ज्ञेय है, ऐसा भी नहीं है।
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*ज्ञेय की पकड़ कहो या ज्ञेयाकार में अटक-एक ही बात हैं*
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