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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
उत्तर : हाँ कहे हैं, व्यवहार से कहे है, पर निश्चय से ये सर्व बाह्य निमित्त तेरे ज्ञेय भी नहीं है। अहा ! अनन्त तीर्थकर, अनन्त केवली, अनन्त सिद्ध, अनन्त आचार्य - उपाध्याय - साधु वो तुझे लाभदायक हैंऐसा तो नहीं है, वे सब तेरी वस्तु तो नहीं हैं, लेकिन वे तेरा वास्तविक ज्ञेय हैं ऐसा भी नहीं है । धवल में पाठ आता है न
णमो लोए सव्व त्रिकालवर्ती अरिहंताणं, णमो लोए सव्व त्रिकालवर्ती सिद्धाणं, णमो लोए सव्व त्रिकालवर्ती आइरियाणं, णमो लोए सव्व त्रिकालवर्ती उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व त्रिकालवर्ती साहूणं ।
अहा! पहले जो हो गये और भविष्य में जो होंगे, वे अरिहंतादि भी अभी वंदन में आ गए । यद्यपि व्यक्तिगत रूप से नहीं आये, पर समूह में सब आ गये। यहाँ कहते हैं कि त्रिकालवर्ती पंच परमेष्ठी ज्ञेय हैं और तू ज्ञायक है-ऐसा नहीं है । तो कैसा है ? कि तत्सम्बन्धी तुझे जो ज्ञान हुआ है, वह ज्ञान पर्याय ही तुझे ज्ञेय हुई है, प्रमेय नामक गुण तेरे में है, इसलिए तेरा ज्ञान उसे प्रमाण करके उस प्रमेय को (तेरी ज्ञान पर्याय को ) जानता है । परन्तु पर- द्रव्यरूप प्रमेय को तू जानता है - यह बात सत्यार्थ नहीं है ।
अरे! इसे यह समझने की फुरसत कहाँ है ? एक तो धन्धे के कारण फुरसत नहीं मिलती और बाकी का समय पंचेन्द्रियों के भागों में चला जाता है। कदाचित् फुरसत मिलती है तो क्रियाकाण्ड में अटक जाता है। अरे! पर से अपनी मान प्रतिष्ठा बढ़े इसकी दरकार में इसके लिए
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'ज्ञायक नहीं है अन्य का*
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