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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
अहा! अपनी पर्याय में जो व्यवहार का (शुभ भाव का) ज्ञान है, वह व्यवहार ज्ञेय है और आत्मा ज्ञान है-ऐसा भी जहाँ नहीं है, वहाँ व्यवहार से लाभ होता है-यह बात कहाँ रही ? भगवान! तू स्वरूप से ऐसा है ही नहीं। राग आवे, होय यह अलग बात है, पर इससे तुझे लाभ होगा-ऐसा वस्तुस्वरूप ही नहीं है।
ऐसे तो छहों द्रव्य अनादि से हैं, प्रत्येक द्रव्य सत्प है, असत्प नहीं। क्या कहा ? 'ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या ऐसा नहीं है। अपनी शुद्ध एक ज्ञायक वस्तु की अपेक्षा से तो जगत् मिथ्या-अवस्तु भले हो, परन्तु अपनी-अपनी अपेक्षा से तो छहों द्रव्य अनादि से सत्-विद्यमान हैं। आहाहा... एक-एक द्रव्य अनन्त गुणों से भरा हुआ स्वयं सिद्ध सत् है, परन्तु यह मेरा ज्ञेय है, यह बात कहना मुझे खटकती है, क्योंकि वह मेरा वास्तविक ज्ञेय नहीं है। जहाँ ऐसा है, वहाँ यह पदार्थ मेरा है और मुझे हितकारी है, वह बात कहाँ रही ? भाई! यह तेरे हित की बात है। अपने को समझ में आ जाय ऐसी बात है, किसी को पूछना ना पड़े।
अहाहा! यहाँ कहते हैं-एक जानपने रूप शक्ति, दूसरी जनाने योग्य शक्ति और तीसरी अनेक शक्ति से विराजमान वस्तु-ऐसे तीन भेद मेरा स्वरूप मात्र है। मतलब कि ये तीनों स्वरूप में ही हूँ; ज्ञेय भी मैं, ज्ञान भी मैं और ज्ञाता भी मैं हूँ। ये तीनों स्वरूप मैं ही हूँ। परज्ञेय मैं हूँ-ऐसा नहीं है। देव-गुरु-शास्त्र और देव-गुरु-शास्त्र के प्रति श्रद्धाविनय-भक्ति का जो विकल्प उठता है, वह मैं हूँ-ऐसा नहीं है, क्योंकि ये सब पर-ज्ञेय हैं। प्रभु ! अपनी अन्तर की चीज तो देख। क्या चीज है !! वीतराग... वीतराग... अकेला वीतराग विज्ञान !!
प्रश्न : परन्तु देव-गुरु-शास्त्र तो शरणदाता कहे हैं ?
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* मैं जाननेवाला और लोकालोक ज्ञेय-ऐसा किसने कहा है*
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