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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है आनन्दधनजी ने कहा है “ आशा औरन की क्या कीजे, " पीजै। ज्ञानसुधारस अहा! पर की आशा छोड़कर पर का लक्ष्य छोड़कर अन्तर के लक्ष्य से ज्ञानरूपी सुधारस पीओ ने प्रभु ! अज्ञानी कहता है-मेरा गुरु है, मेरा भगवान है, मेरा देव है, मेरा मन्दिर है, परन्तु भाई! ये तो सब प्रत्यक्ष भिन्न वस्तुए तेरी कहाँ से होवे? ये सब मेरे है, मेरा भला करने वाले हैं, ये बात तो दूर रहो, ये तेरे ज्ञेय होवें–ऐसा भी सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि ज्ञेय भी तू स्वयं है, ज्ञान भी तू स्वयं है और ज्ञाता भी स्वयं ही है। अहाहा...! कहते हैं- ज्ञेय भी मैं, ज्ञान भी मैं और ज्ञाता भी मैं ऐसी चेतना सर्वस्व वस्तु मैं हूँ। यह मार्ग बहुत सूक्ष्म और गम्भीर है भाई ! यह समझ में नहीं आता, इसलिए लोग क्रियाकाण्ड में फँस जाते हैं और उसी का निरूपण करते हैं परन्तु ये सब मिथ्याभाव और मिथ्या प्ररूपणा है। भाई ! इससे मिथ्यात्व ही पुष्ट होगा, धर्म नहीं । अरे! लोग कुगुरुओं के द्वारा लुटे जा रहे हैं। तब कोई पूछता है कि यह कैसे मालूम होवे की यह भावलिंगी साधु है या द्रव्यलिंगी साधु है ? अरे भाई ! यदि तुझे अपने ( हित के ) लिये निर्णय करना है तो सुन, जहाँ प्ररूपणा ही बिलकुल विपरीत हो वहाँ ये मिथ्यात्व है - ऐसी खबर पड़ ही जाती है। दया, दान, व्रत, भक्ति आदि के परिणाम परज्ञेयरूप से तेरे ज्ञान में ज्ञात होते हैं, कोई उसे धर्म का कारण माने-मनावे इससे धर्म होगा ऐसी प्ररूपणा करेयह सब स्थूल मिथ्यात्व है । यह तुझे कठिन लगेगा, पर कहा था न कि व्यवहार का निषेध करते हैं वह तेरा निषेध करने के लिये नहीं करते, क्योंकि तू ऐसा (व्यवहार रूप ) है ही नहीं, तो फिर तेरा निषेध कहाँ हुआ प्रभु ! तू ज्ञेय - ज्ञान - ज्ञाता स्वरूप आत्मा है न भगवान ! तो इसमें तेरा अनादर कहाँ आया ? उल्टा इसमें तो तेरा स्व का आदर आया है I १५४ * मैं पर को मारता हूँ, मैं पर को जानता हूँ- समकक्षी पाप है* Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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