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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
अपनी ज्ञान पर्याय में छह द्रव्य जानने में आते हैं, परन्तु वे छह द्रव्य है इसलिए यहाँ ज्ञान हुआ है-ऐसा नहीं है। अपनी ज्ञान पर्याय ही स्वतः ऐसी प्रगट हुई है और यह पर्याय ही अपना ज्ञेय है। देखो कलश में है कि नहीं ? कि “अपने जीव से भिन्न छह द्रव्यों के समूह को जानने मात्र" मैं नहीं हूँ। क्या कहा ये? कि छह द्रव्यों को जानने मात्र मैं नहीं हूँ, मतलब कि मेरी पर्याय को जानने मात्र मैं हूँ, क्योंकि मेरा सर्वस्व मेरे में ही है। - इसके भावार्थ में ऐसा कहा है कि भावार्थ इस प्रकार है कि मैं ज्ञायक और समस्त छह द्रव्य मेरे ज्ञेय-ऐसा तो नहीं है। अहाहा! भगवान पंच परमेष्ठी मेरे तो नहीं हैं परन्तु वो मेरे ज्ञेय हैं ऐसा भी नहीं है। क्योंकि यहाँ (अपनी पर्याय में) पंच परमेष्ठी सम्बन्धी जो ज्ञान हुआ है वह उनसे नहीं हुआ है परन्तु पर्याय की तत्कालीन योग्यता से-सामर्थ्य से हुआ है। इसलिए अपनी पर्याय ही अपना वास्तविक ज्ञेय है। इस प्रकार बाहर में से दृष्टि को अन्दर में समेट लिया है। फिर अपने में से ज्ञेय-ज्ञान-ज्ञाता के तीन भेद भी निकाल देंगे। यहाँ तो प्रथम परज्ञेय है और मैं ज्ञायक हूँ-ऐसा भ्रांति मिटाई है। फिर ज्ञाता ही ज्ञाता है, ज्ञाता ही ज्ञान है और ज्ञाता ही ज्ञेय है- ऐसा कहेंगे। अहो! सन्तों ने मार्ग एकदम खोल दिया है। वाह संतों वाह! आहाहा... कहते हैं “मैं ज्ञायक हँ” और समस्त छह द्रव्य मेरे ज्ञेय हैं-ऐसा तो नहीं है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल और परमाणु से लेकर महास्कन्ध तथा कर्म आदि मेरे ज्ञेय हैं और मैं ज्ञायक हूँ-ऐसा नहीं हैं, ऐसा कहते हैं। अहा! कर्म मेरे हैं, मुझमें हैं ऐसा तो नहीं, परन्तु कर्म मेरा ज्ञेय है
और मैं ज्ञायक हूँ ऐसा भी नहीं है। अज्ञानी पुकार करते हैं कि कर्म से ऐसा होता है और कर्म से वैसा होता है, पर अरे! सुन तो सही नाथ! कर्म तो तुझे छूता भी नहीं है। वास्तव में तेरे ज्ञान की सामर्थ्य ही ऐसी है कि उसमें पर की अपेक्षा ही नहीं है।
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* इन्द्रियज्ञान पर की प्रसिद्धि करता है
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