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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
वहाँ उसको ‘जाना हुआ' कहा, वो व्यवहार है क्योंकि वास्तव में तो वह अपनी ज्ञान की पर्याय को जानता है और वह पर्याय ही अपना ज्ञेय है। राग को ज्ञेय कहना वह तो व्यवहार है।
यह देव-गुरु-शास्त्र की श्रद्धा का राग, नवतत्व की भेद वाली श्रद्धा का राग और पंच महाव्रत के परिणाम का राग कि जो छह द्रव्यों में आ जाता है वह, अपना स्वभाव तो नहीं है लेकिन वास्तव में वह अपना ज्ञेय भी नहीं है, पर वस्तु है। यह शरीर और उसकी रोग, वार्धक्य आदि जो अनेक अवस्थायें होती हैं वे, और स्त्री-कुटुम्ब-परिवार, देव-गुरुशास्त्र, धन-सम्पति इत्यादी परद्रव्य, भगवान ज्ञायक में तो नहीं है, लेकिन वे परद्रव्य ज्ञेय हैं, प्रमेय हैं (भगवान ज्ञायक के) और भगवान आत्मा प्रमाता-प्रमाण करने वाला है ऐसा भी नहीं है। भाई, यह तो सब तरफ से पर से सिमट जाने की बात है। कठिन काम है बापा! क्योंकि अनन्तकाल में उसने किया ही नहीं है! लेकिन उसके बिना (भेदज्ञान बिना ) भव का अन्त आवे-ऐसा नहीं है। समझ में आया कुछ ?
अहाहा! कहते हैं-जीव वस्तु ज्ञायक और पुदगल से लेकर भिन्न रूप छह द्रव्य उसका ज्ञेय-ऐसा वस्तुस्वरूप नहीं है, क्योंकि छह द्रव्य जिस ज्ञान में प्रतिभासित होते है यह ज्ञान की पर्याय, उस ज्ञेय के कारण से नहीं हुई है। लेकिन स्व-पर को प्रकाशती हुई अपने सेअपनी सामर्थ्य से प्रकट हुई है। इसलिये अपनी ज्ञान की पर्याय ही अपना ज्ञेय है। ऐसी बहुत गम्भीर बात है!
अब कहते हैं-जैसा अभी कहने में आता है वैसा है “ अहम् अयं यः ज्ञानमात्र: भावः अस्मि" मैं जो कोई चेतनासर्वस्व ऐसी वस्तुस्वरूप हूँ। “सः ज्ञेयः” वह मैं ज्ञेय रूप हूँ। अहाहा! देखा ? क्या कहा ? जानन-देखन रूप चेतना जिसका
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*एक भावक भाव, एक ज्ञेय का भाव-उनसे अलग मैं ज्ञायकभाव हूँ*
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