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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
सर्वस्व है ऐसा वस्तुस्वरूप मैं हूँ और वह मैं ज्ञेय रूप हूँ। मतलब कि इन छह द्रव्यों का ज्ञेयत्व मुझे है अर्थात् छह द्रव्य मेरा ज्ञेय है-ऐसा है नहीं। मेरी ज्ञान की पर्याय है वो ही मेरे में ज्ञेय है। अहा! इन अन्तिम कलशों में बहुत सूक्ष्म गम्भीर बातें की हैं।
भगवान केवली लोकालोक को जानते हैं ऐसा नहीं है-ऐसा यहाँ कहते हैं।
तब कोई कहते है-क्या भगवान लोकालोक को नहीं जानते ? आत्मा ज्ञायक है तो छह द्रव्य उसका ज्ञेय है या नहीं ? केवल ज्ञान का छह द्रव्य ज्ञेय है या नहीं? और कोई कहता है-निश्चय से नहीं है, व्यवहार से है।
अरे भाई! “ व्यवहार से हैं" इसका अर्थ क्या ? यही कि, ऐसा है नहीं। अपने में अपनी ज्ञान पर्याय में-लोकालोक का ज्ञान अपने कारण से होता है, वह ज्ञान पर्याय अपने ज्ञेय हैं, लेकिन लोकालोक ज्ञेय नहीं है। बहुत सूक्ष्म बात हैं! यह तो धीरज वाले का काम है भाई! यह कोई एकदम जल्दबाजी से मिल जाय ऐसी वस्तु नहीं है।
अहाहा...! कहते हैं-मैं जो कोई चेतना सर्वस्व ऐसी वस्तुस्वरूप हूँ “सः ज्ञेयःन एव" वह मैं ज्ञेयरूप हूँ, लेकिन ऐसा ज्ञेयरूप नहीं हूँ; कैसा ज्ञेयरूप नहीं हूँ ? “ज्ञेयज्ञानमात्रः” अपने जीव से भिन्न छह द्रव्यों के समूह को जानने मात्र। भावार्थ ऐसा है कि मैं ज्ञायक और समस्त छह द्रव्यों मेरा ज्ञेय-ऐसा तो नहीं है।
देखो यह क्या कहा ? कि चैतन्यमात्र भगवान ज्ञायक से भिन्न, छह द्रव्यों का ज्ञान मात्र मैं नहीं हूँ, मैं तो अपनी ज्ञान पर्याय को ज्ञेय बनाकर जानने वाला हूँ। लो, अब व्यवहार-दया, दान, व्रत आदि का राग ज्ञेय और आत्मा ज्ञायक-ऐसा भी जहाँ नहीं है तो व्यवहार करते-करते
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*ज्ञेय ज्ञेय को जानता है, ज्ञान आत्मा को जानता है
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