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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
है, तो उसके ऊपर अज्ञानी की नजर नहीं है। हालांकि वह है तो पर्याय में जानने में आये ऐसी वस्तु, अर्थात् ज्ञान की पर्याय में जानने में तो वो ही आता है, ज्ञायकभाव ही जानने में आता है ऐसा परमात्मा प्रभु कहते हैं । । ३२७ ।।
(— ज्ञायकभाव' गुजराती, पृष्ठ २४ में से )
* और कोई ऐसा भी कहते हैं " पर्याय है, उसका ज्ञान करना चाहिए न?” पर्याय को जानना चाहिये, पर्याय को विषय बनाना चाहिये, अन्यथा एकान्त हो जायेगा, पर्याय भी वस्तु हैं, अवस्तु नहीं है ऐसा शास्त्र में भी कहा है, कार्य तो पर्याय में होता है न ? पर्याय बिना कुछ कार्य होता है ? ऐसे पर्याय का पक्ष करके, परस्पर व्यवहार का पक्षरूप उपदेश करके मिथ्यात्व पुष्ट करते रहते हैं । । ३२८ ।।
(श्री गुजराती प्रवचनरत्नाकर, भाग-१, पृष्ठ १४६ में से ) * श्री समयसार कलश टीका, कलश २७१ कलशार्थ के ऊपर प्रवचन :
'भावार्थ ऐसा है कि...' देखा ? कलश का अर्थ करने के पहले उसमें क्या कहना है वह स्पष्ट करने के लिये पहले से ही भावार्थ लिया। देखो, ऐसे शुरू किया है कि-' ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्ध के विषय में बहुत भ्रांति चल रही है'।
देखो! परद्रव्य ज्ञेय है और आत्मा उसका ज्ञायक है ऐसा माने वह भ्रांति है-ऐसा कहते हैं। भाई! परज्ञेय है वह तो व्यवहार से ज्ञेय है, वास्तव में निश्चय से तो अपनी ज्ञान की दशा में, जो छह द्रव्य का ज्ञान होता हे वो ही अपना ज्ञेय है, वो ही अपना ज्ञान है और स्वयं आत्मा ही ज्ञाता है।
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* इन्द्रियज्ञान आत्म अनुभव कराने में असमर्थ है*
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