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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
नजर वहाँ नहीं है। तेरी नजर दया की, व्रत पाले, भक्ति की और पूजा की-ऐसा जो राग है उसके ऊपर है। और उस नजर के कारण तेरे को राग ही जानने में आता हैं जो मिथ्याबुद्धि हैं । अर्थात् राग को जानने वाली जो ज्ञानपर्याय है वही पर्याय स्व को जानने वाली है लेकिन उसमें (स्व में) तेरी नजर नहीं होने के कारण तेरे को राग और पर्याय ही जानने में आती है, जो मिथ्याबुद्धि, मिथ्यादृष्टि है।
लेकिन जिसकी (ज्ञानी की) दृष्टि परद्रव्य और उसके भाव ऊपर से छूट गई है और पर्याय के भेद ऊपर मे भी जिसका लक्ष छूट गया है और अन्य द्रव्य के भाव से भी लक्ष छूटा अर्थात् राग से लक्ष छूटा तो पर्याय से भी लक्ष छूट गया, ऐसी बात है बापू ! ।।३२६ ।। ('ज्ञायकभाव' गुजराती, पृष्ठ नं. २५ में से )
* अरे ! १७ - १८ गाथा में तो ऐसा कहा है कि उसकी (तेरी ) वर्तमान ज्ञानपर्याय में पूरा द्रव्य ही जानने में आ रहा है। सूक्ष्म बात है बापू ! प्रभु ! तेरी प्रभुता का पार नहीं है। जिसकी प्रभुता की पूर्णता का कथन करना भी कठिन पड़े, ऐसा तू सर्वोत्कृष्ट नाथ अन्दर में विराजमान है। तो यह ऐसा सर्वोत्कृष्ट नाथ एक समय की पर्याय में जो पड़ा है वह अज्ञानी के भी समीप में है। नजर में है। क्योंकि पर्यायस्वभाव ही ऐसा है। क्या कहा ? कि ज्ञान की एक समय की पर्याय का स्वभाव ही ऐसा है कि पूरा द्रव्य को ही वह जानती है। कहते हैं कि, एक समय की ज्ञान की वर्तमान खुली हुई जो पर्याय है उसमें वह द्रव्य ही जानने में आता है। लेकिन अज्ञानी की दृष्टि वहाँ नहीं है । अनादि से उसकी दृष्टि दया, दान, व्रत, काम, क्रोध के परिणाम या उसको जानने वाली एक समय की पर्याय ऊपर है। बस, वहीं वो खड़ा है इसलिये वो मिथ्यादृष्टि है, सत्यदृष्टि से विरुद्ध दृष्टि वाला है । परन्तु सत्य जो प्रभु आत्मा है, उसको ज्ञायकभाव कहो, सत्यार्थ कहो, भूतार्थ कहो, पूर्णानन्द का प्रभु कहो या सत्य साहिब कहो एक ही
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* मैं पर को जानता हूँ ऐसी बुद्धि मिथ्या है*
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