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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
* प्रश्न : ज्ञायक भी आत्मा और ज्ञेय भी आत्मा ?
समाधान : ज्ञायक और ज्ञेय तरीके यहाँ तो पर्याय को लेना है। अभी तो उसकी पर्याय लेनी है क्योंकि जो जानने में आया है, वह पर्याय अपनी है और उसको वह जानता है परन्तु पर को जानता है ऐसा नहीं है। और “और जो ज्ञायकपने जानने में आया” ऐसा आया है न? तो वह पर्याय है। अहा! सूक्ष्म बात है, भैया! यह अनन्तकाल की मूल चीज का अभ्यास ही नहीं है! इसलिये बात सूक्ष्म लगती है।
अहा! यहाँ ‘वो ही है, अन्य कोई नहीं' ऐसा है न? तो 'अन्य कोई नहीं' अर्थात् वह पर का, राग का ज्ञान नहीं है अर्थात् जानने वाला जानता है इसलिये जानने वाले ने पर को जाना है या पर को जानने वाला ज्ञान है-ऐसा नहीं है। अहा! शब्द-शब्द में गूढ़ता है। क्योंकि यह तो समयसार है न! और उसमें भी कुंदकुंदाचार्य! अहा! तीसरे नम्बर में आये न! ____मंगलम् भगवान वीरो, मंगलम् गौतमो गणी, मंगलम् कुंदकुंदार्यो।।३२५ ।।
('ज्ञायक भाव' गुजराती, पृष्ठ नं. १२ में से) * एक बार सुन, कि तेरी वर्तमान जो ज्ञान की एक समय की अवस्था है उसका स्वपरप्रकाशक स्वभाव होने से, भले तेरी नजर वहाँ न हो तो भी, उस पर्याय में द्रव्य ही जानने में आता है, अरे रे! यह बात कहाँ है ? अरे कहाँ जाना है और खुद कौन है ? उसका ख्याल ही नहीं है। अहा! त्रिलोकनाथ ऐसा कहते है कि भगवान आत्मा! प्रभु! तू जितना बड़ा प्रभु है इतना तेरी एक समय की पर्याय में अज्ञान हो तो भी पर्याय में जानने में आता ही है। क्योंकि ज्ञान की पर्याय का स्वपरप्रकाशक स्वभाव है। इसलिये उस पर्याय में स्व (आत्मा) प्रकाशित तो होता ही है, लेकिन तेरी
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* मैं ज्ञायक और छह द्रव्य ज्ञेय वह भ्रांति है
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