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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
लेकिन जानने योग्य वस्तु है उसका यह जानने का कार्य नहीं है और जानने योग्य वस्तु है यह जानने वाले (ज्ञायक) का कार्य नहीं है।
अहा! यहाँ ज्ञात:- ज्ञायकपणे जानने में आया-ऐसा कहा है न। और 'जानने में आया वो तो वो ही है' ऐसा भी कहा है न। अतः वह (ज्ञायक) जानने वाला है इसलिये उसमें दूसरा ( परपदार्थ) जानने में आया है-ऐसा नहीं है।।३२२।।
__('ज्ञायक भाव' गुजराती में से , पृष्ठ १०) * प्रश्न : परन्तु वह जाननहार है न। इसलिये वह जानने वाला है इसलिये-उसमें दूसरा ( परपदार्थ) भी जानने में आया है न?
समाधान : ना, क्योंकि जो जानने में आता है वह स्वयं ही है अथवा अपनी पर्याय ही जानने में आयी है। जाननहार की पर्याय जानने में आई है। रागादि हो तो हो परन्तु यहाँ राग सम्बन्धी का जो ज्ञान है वह ज्ञान तो अपने से प्रकट हुआ है अर्थात् वह राग है इसलिये यहाँ स्वपरप्रकाशक ज्ञान की पर्याय प्रकट हुई है ऐसा नहीं है।।३२३।।
('ज्ञायक भाव' गुजराती, पृष्ठ १०, ११ में से) * प्रश्न : 'दूसरा कोई नहीं है' ऐसा कहा है, तो दूसरा अर्थात् कौन ?
उत्तर : दूसरा अर्थात् कि वह राग नहीं है, राग का ज्ञान नहीं है, लेकिन वह ज्ञान का ज्ञान हैं। अहा! व्यवहार जाना हुआ प्रयोजनवान है ऐसा ( आगे १२ वीं गाथा में) आयेगा। परन्तु यहाँ तो कहते हैं कि यह राग है, उसी प्रकार वह (जानने वाला) राग को जानता है ऐसा भी नहीं है। लेकिन वह तो राग सम्बन्धी का अपना ज्ञान अपने को हुआ है उसको वह जानता है, ऐसी बात है।।३२४ ।।
('ज्ञायक भाव' गुजराती, पृष्ठ १२ में से)
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* मैं धर्मादि द्रव्य को जानता हूँ, यह अध्यवसान है*
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