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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
मिथ्यात्व है।
द्रव्येन्द्रियाँ हैं वे शरीर परिणाम को प्राप्त हैं, जबकि भावेन्द्रियाँ ज्ञान के खण्ड-खण्ड परिणाम को प्राप्त हैं। जो ज्ञान एक-एक विषय को दर्शाये ज्ञान को खण्ड-खण्ड रूप से दर्शाये अंशी (ज्ञायक) को पर्याय में खण्ड रूप से दर्शाये वह भावेन्द्रियाँ हैं। जैसे जड़ द्रव्येन्द्रियाँ ज्ञायक का परज्ञेय है वैसे भावेन्द्रियाँ भी ज्ञायक का परज्ञेय है। यहाँ ज्ञेय ज्ञायक के संकर दोष का परिहार कराते हैं। जैसे शरीर परिणाम को प्राप्त जड़ इन्द्रियाँ ज्ञेय और आत्मा ज्ञायक भिन्न हैं-वैसे ही भावेन्द्रियाँ भी परज्ञेय हैं और आत्मा ज्ञायक भिन्न है। अहाहा! एक-एक विषय को जानने वाले ज्ञान का क्षयोपशम तथा अखण्ड ज्ञान को खण्ड-खण्ड रूप से दर्शाने वाली भावेन्द्रियाँ वे ज्ञायक का परज्ञेय हैं और ज्ञायक प्रभु आत्मा से भिन्न हैं। इसमें अखण्ड एक चैतन्यशक्तिपने की प्रतीति का जोर लिया है। पहले द्रव्यन्द्रियों को भिन्न करने में उसके (ज्ञायक भाव के) अवलम्बन का बल लिया है ज्ञायक भाव एक और अखण्ड है जबकि भावेन्द्रियाँ अनेक खण्डखण्ड रूप हैं। अखण्ड एक ज्ञायक भाव रूप चैतन्यशक्ति की प्रतीति होने पर अनेक और खण्ड-खण्ड रूप भावेन्द्रियाँ अलग हो जाती हैं, भिन्नपने दिखती हैं। इस प्रकार अखण्ड ज्ञायकभाव की प्रतीति द्वारा ज्ञान को खण्ड-खण्ड रूप दर्शाने वाली पर ज्ञेयरूप भावेन्द्रियों को सर्वथा अलग करना वह भावेन्द्रियों का जीतना है ऐसा कहा जाता है।।३०७।।
(श्री गुजराती प्रवचनरत्नाकर, भाग-२, पृष्ठ १२५ )
* इस (३१) गाथा में ज्ञेय-ज्ञायक के संकर दोष के परिहार की बात है। शरीर परिणाम को प्राप्त जड़ इन्द्रियाँ पर ज्ञेय होने पर भी वह मेरी हैं ऐसी एकत्वबुद्धि वह मिथ्यात्वभाव संकर-खिचड़ी है। जिसकी ऐसी मान्यता है, उसने जड़ की पर्याय और चैतन्य की पर्याय को एक किया है (एक माना है) इसी प्रकार एक-एक विषय को (शब्द, रस, रूप इत्यादी) जानने की योग्यता वाला क्षयोपशम भाव वह भावेन्द्रिय है। वह भी सचमुच
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* इन्द्रियज्ञान वह आत्मा को जानने का साधन नहीं है
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