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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है में इन्द्रिय है। शरीर परिणाम को प्राप्त जड़-इन्द्रियाँ जैसे-ज्ञायक का परज्ञेय हैं-वैसे ही शब्द, रस, रूप, गंध आदि को जानने वाली भावेन्द्रियाँ भी निश्चय से ज्ञायक का परज्ञेय हैं; ज्ञायक भगवान आत्मा का वो स्वज्ञेय नहीं है। वैसे ही भावेन्द्रियों से ज्ञात होने वाले जो शब्द, रस, गंध, स्पर्शादि परपदार्थ वो भी परज्ञेय हैं। स्वज्ञेयपने जानने लायक ज्ञायक और पर तरीके जानने लायक परज्ञेय-इन दोनों की एकत्व बुद्धि वो मिथ्यात्व, अज्ञान और संसार भाव है। इन तीनों को (द्रव्येन्द्रियों, भावेन्द्रियों और उसके विषयभूत पदार्थों को) जो जीते अर्थात् परज्ञेय तरफ का लक्ष छोड़कर स्वज्ञेय जो शुद्ध ज्ञायक भाव स्वरूप आत्मा है उसका अनुभव करे, उसको जाने, वेदे और माने, वो सम्यकदृष्टि है। और उसे केवली की साँची अथवा निश्चय स्तुति होती है।।३०६ ।। (श्री गुजराती प्रवचनरत्नाकर, भाग-२, पृष्ठ १२१) * अब, भावेन्द्रियों को जीतने की बात करते हैं। अलग-अलग अपनेअपने विषयों में व्यापारपने से जो विषयों को खण्ड-खण्ड ग्रहण करती हैं वे भावेन्द्रियाँ हैं। कान का क्षयोपशम शब्द को जानता है, आँख का क्षयोपशम रूप को जानता है, स्पर्श का क्षयोपशम स्पर्श को जानता है इत्यादि अपने-अपने विषयों में व्यापार करके जो विषयों को खण्डखण्ड ग्रहण करती हैं ( जानती हैं) वे भावेन्द्रियाँ हैं। यह बाह्य इन्द्रियों की बात नहीं है। एक-एक इन्द्रिय अपना-अपना व्यापार करती है इसलिये ज्ञान को वह खण्ड-खण्ड रूप दर्शाती है। जैसे द्रव्येन्द्रियों और आत्मा को एकपने मानना वह अज्ञान है, वैसे ही ज्ञान को खण्डखण्ड रूप से दर्शाने वाली भावेन्द्रियों और ज्ञायक को एकरूप मानना वह भी मिथ्यात्व है, अज्ञान है। अलग-अलग अपने-अपने विषयों को जो खण्ड-खण्ड रूप से दर्शाती हैं उन भावेन्द्रियों की ज्ञायक आत्मा के साथ एकता करना ( मानना) वह १३३ *इन्द्रियज्ञान स्व और पर को जानने का साधन नहीं है Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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