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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
परज्ञेय है। पर ज्ञेय और ज्ञायक भाव की एकताबुद्धि वह संसार हैमिथ्यात्व है। भावेन्द्रिय का विषय जो पूरी दुनिया स्त्री, कुटुम्ब, देव , शास्त्र, गुरु-वे सब इन्द्रिय के विषय होने से इन्द्रिय कहने में आते हैं। वह भी परज्ञेय हैं। उससे मुझे लाभ होगा ऐसा मानना वह मिथ्या भ्रांति है।।३०८ ।।
(गुजराती श्री प्रवचनरत्नाकर , भाग-२, पृष्ठ १२६ ) * मिथ्या दष्टि को नौ पूर्व की जो लब्धि प्रकट होती है वह और सात द्वीप तथा समुद्र को जाने ऐसा जो विभंग ज्ञान होता है वह इन्द्रियज्ञान है, भावेन्द्रिय है। वह नव पूर्व का ज्ञान या विभंग ज्ञान स्वभाव को प्राप्त करने में कुछ काम नहीं आता। भावेन्द्रिय को जीतना हो तो प्रतीति में आता हुआ अखण्ड एक चैतन्यशक्तिपने के द्वारा उसको सर्वथा भिन्न जान। ज्ञान में वह परज्ञेय है, लेकिन स्वज्ञेय नहीं है ऐसा जान।।३०९ ।।
(गुजराती श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग-२, पृष्ठ १२६ ) * पर्याय को अंतर्मुख झुकाने पर सामान्य एक अखण्ड स्वभाव में ही एकत्व पाती है। इस अखण्ड में एकत्व होऊँ ऐसा भी नहीं रहता। पर्याय जो बाहर की तरफ जाती थी उसको जहाँ अंतर्मुख किया वहाँ वो (पर्याय) स्वयं स्वतंत्र कर्ता होकर अखण्ड में ही एकत्व पाती है। पर्याय को रागादि-पर की तरफ झुकाने से मिथ्यात्व प्रकट होता है। और अंतर्मुख झुकान से पर्याय का विषय अखण्ड ज्ञायक हो जाता है (करना नहीं पड़ता) अहाहा! उसे झुकाने वाला कौन ? दिशा फेरने वाला कौन ? स्वयं। पर की दिशा के लक्ष की तरफ दशा है उस दशा को स्वलक्ष के प्रति झुकाने से शुद्धता व धर्म प्रकट होता है। अरे! जो परज्ञेय है उसको स्वज्ञेय मानकर आत्मा मिथ्यात्व से जीत लिया गया है (नष्ट हो गया है) अब उस परज्ञेय से भिन्न होकर स्वज्ञेय जो एक अखण्ड चैतन्य स्वभाव उसकी दृष्टि और प्रतीति जहाँ की वहाँ भावेन्द्रिय अपने से सर्वथा भिन्न
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*इन्द्रियज्ञान ज्ञेय का भाव है।
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