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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
पू. गुरुदेवश्री के वचनामृत
* प्रभु! तू सर्वको जाननहार देखनहार स्वरूप से पूर्ण है न ? लेकिन तेरे पूर्ण स्वरूप को न जानकर, अकेले (पर) ज्ञेय को जानने-देखने में रुक गया वह तेरा अपराध है। पुण्य-पाप के भाव को करना और जाननदेखन स्वभाव को भूल जाना वह तेरा अपराध है। पुण्य-पाप वो ही और इतना ही मेरा ज्ञेय है ऐसा मानकर उसको ही जानने में रुक गया और अपने पूर्ण ज्ञाता स्वभाव को भूल गया वह तेरा अपराध है। कर्म के कारण से तेरे पूर्ण स्वभाव को तू जानता नहीं है-ऐसा नहीं है, लेकिन वह तेरा खुद का ही अपराध है।।२९७।।
(गुजराती आत्मधर्म , ९६वीं जन्म जयंति अंक,
अप्रैल १९८५ पू. गुरूदेवश्री के बोल नं. ५१) * ग्यारह अंग और नव पूर्व की लब्धि होती है वह ज्ञान भी खण्डखण्ड ज्ञान है, आत्मा का ज्ञान नहीं है। आत्मा अतीन्द्रिय ज्ञानमय है, इन्द्रिय ज्ञान वह आत्मा नहीं है। आँख से हजारों शास्त्र वांचे या कान से सुनें वह इन्द्रिय ज्ञान है, आत्मज्ञान नहीं है, आत्मा अतीन्द्रिय ज्ञान से जानने वाला है इन्द्रियज्ञान से जाने वह आत्मा नहीं है। आत्मा को जानने से जो आनन्द का स्वाद आता है वह स्वाद इन्द्रियज्ञान से नहीं आता, इसलिये इन्द्रियज्ञान वह आत्मा नहीं है।।२९८ ।।।
( गुजराती आत्मधर्म , अप्रैल १९८५ ,
पू. गुरूदेवश्री के बोल नं. ५४ ) * आबाल गोपाल सब वास्तव में जाननहार को ही जानते हैं लेकिन उसको जाननहार का जोर दिखाई नहीं देता इसलिये यह राग है, यह
*इन्द्रियज्ञान दगाबाज है।*
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