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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
पुस्तक है, यह वाणी है इसलिये ज्ञान होता है ऐसे उसका वजन पर में ही जाता है। उसकी श्रद्धा में अपने सामर्थ्य का विश्वास ही नहीं आता, इसलिये जाननहार को ही जानता है, यह बैठता नहीं है।।२९९ ।।
(गुजराती आत्मधर्म, मई १९८४ , __ पू. गुरूदेवश्री के बोल नं. १२)
* यहाँ तो कहते हैं-भगवान! तू पर को जानता ही नहीं है। भगवान लोकालोक को जानते हैं ऐसा कहना वह तो असद्भूत व्यवहार है। भगवान! तू पर को जानता ही नहीं है।।३०० ।। (पू. गुरूदेवश्री का प्रवचन, श्री प्रवचनसार गाथा ११४ के ऊपर
अध्यात्म प्रवचनरत्नत्रय में से पृष्ठ १३९) * आत्मा वास्तव में पर जानता ही नहीं है तो फिर पर को जानने के लिये उपयोग लगाना यह बात ही कहाँ रही ?
आत्मा आत्मा को जानता है ऐसा कहना वह भी भेद होने से व्यवहार है। वास्तव में ज्ञायक तो ज्ञायक ही है वह निश्चय है। जैन दर्शन बहुत सूक्ष्म है।।३०१।।
(गुजराती आत्मधर्म, मार्च १९८१ में से उद्धृत) * ज्ञानी को समय-समय में ज्ञेय संबंधी अपने ज्ञान की प्रसिद्धि है लेकिन ज्ञेय की प्रसिद्धि नहीं है। अहा! ज्ञान तो ज्ञान को प्रसिद्ध करता ही है लेकिन ज्ञेय भी ज्ञान को प्रसिद्ध करते हैं। यह सत् की पराकाष्टा है।।३०२।।
(अध्यात्म प्रणेता गुजराती में से उद्धृत) * स्वयं अपने (आत्मा) को जानते-जानते वह सर्व को जाने ऐसा उसका
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* मोहराजा इन्द्रियज्ञान को ज्ञान कहता है, सर्वज्ञदेव उसको ज्ञेय कहते हैं
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