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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
शून्य नहीं होता-आत्मस्वरूप में लीन है। आत्मा का यह शून्यता और अशून्यता स्वभाव अपने आत्मा द्वारा ही उपलब्ध होता है-अन्य बाह्य पदार्थों द्वारा नहीं अर्थात् शून्याऽशून्य स्वभाव को प्राप्त होता है।
भावार्थ :- परद्रव्यादि चतुष्टयके स्वभाव की अपेक्षा से आत्मा शून्य और स्वद्रव्यादि चतुष्टय के सद्भाव से अशून्य होता है। अर्थात् आत्मा स्वसंवेद्य है।।२९५ ।।
(श्री रामसेनाचार्य विरचित श्री तत्वानुशासन श्लोक १७३ ) * मुक्ति के लिए नैरात्म्याऽद्वैत-दर्शन की उक्ति का स्पष्टीकरण :
ततश्च यज्जगुर्मुक्त्यै नैरात्म्याऽद्वैत-दर्शनम्। तदेवदेव यत्सम्यगन्याऽपोढाऽऽत्मदर्शनम्।।१७४।।
अर्थ :- मुक्ति की प्राप्ति के लिए जो नैरात्म्य-अद्वैत दर्शन की बात कही है उसका अर्थ ऐसा है कि उसमें अन्य आभास रहित सम्यग्आत्मदर्शन रूप है।
भावार्थ :- नैरात्म्याद्वैत जो कहा है वह किसी आगम में होगा उसकी यहाँ स्पष्टता की है कि अन्य आभास से रहित मात्र केवल आत्मदर्शन रूप से परिणमना। वहाँ अन्य किसी वस्तु का प्रतिभास नहीं है। और यदि प्रतिभास होता है तो समझना कि वहाँ अद्वैत दर्शन नहीं है।।२९६ ।।
( श्री रामसेनाचार्य विरचित श्री तत्वानुशासन श्लोक १७४)
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* इन्द्रियज्ञान की रुचि अर्थात इन्द्रिय की रुचि*
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