________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
होता-अडोल रहता है-वैसे ही स्वरूप में स्थित योगी एकाग्रता को नहीं छोड़ता। ____ भावार्थ :- जहाँ वायु का संचार नहीं होता वहाँ दीपक अडोल रहता है। वैसे ही बाह्यद्रव्यों के संसर्ग से रहित योगी अपने स्वरूप में स्थिर रहता है। अपनी एकाग्रता को नहीं छोड़ता (अटल-अचल टिकता है)।।२९३।।
(श्री रामसेनाचार्य विरचित श्री तत्वानुशासन श्लोक १७१)
स्वआत्मा में लीन योगी को बाह्य पदार्थ प्रतिभासित नहीं होते :तदा च परमैकाग्रयाद् बहिरर्थेषु सत्स्वपि। अन्यत्र किंचनीऽऽभाति स्वमेवात्मनि पश्यतः।।१७२।।
अर्थ :- योगी समाधिकाल में स्वआत्मा को देखता है, जिससे बाह्य पदार्थ जो कि वहाँ विद्यमान होने पर भी आत्मा परम एकाग्रता को प्राप्त होने से उसे बाह्य पदार्थों का कुछ भी भान नहीं रहता। यह सब परम एकाग्रता की ही महिमा है कि अन्य किसी भी प्रकार का चिन्तन नहीं होता।।२९४।।
(श्री तत्वानुशासन, श्री रामसेनाचार्य श्लोक १७२ )
* अन्य से शून्य होने पर भी आत्मा स्वरूप से शून्य नहीं होता :
अत एवाऽन्य-शून्योऽपि नाऽऽत्मा शून्यः स्वरूपतः। शून्याऽशून्य स्वभावोऽयमात्मनैवोपलभ्यते।।१७३।। अर्थ :- इसलिए अन्य पदार्थों से शून्य होने पर भी आत्मस्वरूप से
१२८
*"मैं पर को जानता हूँ” –यहाँ से संसार की शुरूआत होती है*
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com