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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
समाधिस्थस्य यद्यात्मा ज्ञानात्मा नाऽवभासते। न तद्ध्यानं त्वया देव! गीतं मोहस्वभावकम्।।
ज्ञानस्वरूप के अनुभव के बिना का ज्ञान मोहकृत मूर्छा ही है ऐसा कहा है।।२९१।।
(श्री रामसेनाचार्य विरचित श्री तत्वानुशासन श्लोक १६९) * आत्मा के अनुभव का फल :
तमेवानुभवं स्वायमेकाग्रयं परमृच्छति। तथाऽऽत्माधीनमानन्दमेति वाचामगोचरम्।।१६०।।
अर्थ :- ऐसे ज्ञानस्वरूप आत्मा का अनुभव करता हुआ योगीसमाधिस्थ योगी-परम एकाग्रता को प्राप्त होता है जिससे ऐसे स्वाधीन आनन्द का अनुभव करता है कि जो वचनगोचर नहीं है। यहाँ अध्यात्म-रहस्य (अ. २) की गाथा कही है
मामेवाऽहं तथा पश्यन्नैकाग्रयं परमश्नुवे। भजे मत्कन्दमानन्दं निर्जरा संवरावहम्।।४७।।
भावार्थ :- आत्मदर्शन से ध्यान में एकाग्रता की वृद्धि होती है। जिससे योगी को स्वाभाविक आत्मीय आनन्द की प्राप्ति होती है। जिसका वर्णन नहीं कर सकते।।२९२ ।।
(श्री रामसेनाचार्य विरचित तत्वानुशासन श्लोक १७०) * स्वरूपनिष्ठ योगी एकाग्रता को नहीं छोड़ता :
तथा निर्वात-देशस्थः प्रदीपो न प्रकम्पते। तथा स्वरूपनिष्ठोऽयं योगी नैकागयं मुज्झति।।१७१।। अर्थ :- जैसे पवन रहित में रखे हुए दीपक में कम्पन नहीं
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*जिस बात से अनुभव होवे वही बात सत्य है
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