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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
आत्मद्रव्य सर्वाधिक ध्येय किसलिए है ? सति हि ज्ञातरि ज्ञेयं ध्येयतां प्रतिपद्यते। ततो ज्ञानस्वरूपोऽयमात्मा ध्येयतमः स्मृतः।।११८ ।।
अर्थ :- ज्ञाता के अस्तित्व में ही ज्ञेय है वह ध्येयता को प्राप्त बनता है। इसलिए ज्ञानस्वरूप आत्मा ही ध्येयतम-सर्वाधिक ध्येय है।
भावार्थ :- जब कोई भी ज्ञेय वस्तु ज्ञाता बिना ध्येयता को प्राप्त नहीं होती इसलिए ज्ञानस्वरूप आत्मा ही अधिक महत्व का ध्येय ठहरता है।।२८५।।
(श्री रामसेनाचार्य विरचित श्री तत्वानुशासन श्लोक ११८ ) * स्वसंवेदन का लक्षण
वेद्यत्वं वेदकत्वं च यत्स्वस्य स्वेन योगिनः। तत्स्व-संवेदनं प्राहुरात्मनोऽनुभवं दृशम्।।१६१।।
अर्थ :- योगी को साक्षात् दर्शन रूप अपने आत्मा का जो अपने द्वारा वेद्यपना और वेदकपना है उसको स्वसंवेदन कहते हैं। और वह आत्मा के दर्शनरूप अनुभव है।।२८६ ।।
(श्री रामसेनाचार्य विरचित तत्वानुशासन श्लोक १६१)
* स्वात्मा के द्वारा संवेद्य आत्मस्वरूप
दृग्बोध-साम्यरूपत्वाज्जानन्पश्यन्नुदासिता। चित्सामान्य-विशेषात्मास्वात्मनैवाऽनुभूयताम्।।१६३।।
अर्थ :- दर्शन-ज्ञान और समतारूप परिणमता हुआ-ज्ञाता-द्रष्टा और वीतरागता को धारण करता हुआ आत्मा सामान्य-विशेषरूप ज्ञानरूप अथवा ज्ञान-दर्शनात्मक उपयोग रूप है। ऐसे आत्मा को स्वात्मा
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*ज्ञायक नहीं है अन्य का*
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