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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
द्वारा ही अनुभव करना चाहिए।
भावार्थ :- आत्मा ज्ञान-दर्शन और समतारूप है। अर्थात् जो ज्ञाता द्रष्टा और उपेक्षिता ( वीतरागता) इस लक्षण में जो स्थित है उसको सामान्य-विशेषरूप से (चैतन्यस्वरूप है) -दर्शन-ज्ञानस्वरूप है ऐसा अनुभवना चाहिए।।२८७ ।।
(श्री रामसेनाचार्य विरचित श्री तत्वानुशासन श्लोक १६३) * इन्द्रियज्ञान तथा मन द्वारा आत्मा दिखायी नहीं देता
न हीन्द्रियधिया दृश्यं रूपादिरहितत्वतः वितर्कास्तन्न पश्यन्ति ते ह्यविस्पष्ट-तर्कणाः ।।१६६।
अर्थ :- आत्मा का स्वरूप रूपादि से रहित होने से इन्द्रियज्ञान द्वारा नहीं देख सकते तथा तर्क करने से भी नहीं दिखता क्योंकि अपने तर्क में विशेष रूप से स्पष्ट जानने में नहीं आता।
भावार्थ :- इन्द्रियाँ वर्ण-रस-गंध और स्पर्श विशिष्ट पदार्थों को जान सकती हैं। परन्तु आत्मा तो ऐसे वर्णादि गुणों से रहित है तथा अनुमान आदि द्वारा तर्क करने से भी अर्थात् मन से भी नहीं दिखता है। वितर्क अर्थात् श्रुत है वह मन का विषय है इसलिए वितर्क द्वारा भी आत्मा दिखायी नहीं देता है।।२८८ ।।
(श्री रामसेनाचार्य विरचित श्री तत्वानुशासन श्लोक १६६) * इन्द्रिय-मन का व्यापार बंद होने पर स्वसंवित्ति द्वारा आत्मदर्शन
उभयस्मिन्निरूद्धे तु स्याद्विस्पष्टमतीन्द्रियम्। स्वसवेद्यं हि तद्रूपं स्वसंवित्यैव दृश्यताम्।।१६७।। अर्थ :- इन्द्रिय और मन दोनों का निरोध होने पर अतीन्द्रियज्ञान
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__ *पर को जाने ऐसा ज्ञायक का स्वरूप नहीं है।
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