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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
सामग्री कही है ।।२८२ ।।
(श्री रामसेनाचार्य विरचित श्री तत्वानुशासन श्लोक ३८ )
ध्याता को ध्यान कहने का कारण:
ध्येयाऽर्थाऽऽलम्बनं ध्यानं ध्यातुर्यस्मान्न भिद्यते । द्रव्यार्थिकनयात्तस्मादध्यातैव ध्यावमुच्यते । ।७० ।।
अर्थ :- निश्चयनय की दृष्टि से ध्येयवस्तु के अवलम्बन रूप जो ध्यान है वह वास्तव में ध्याता से भिन्न नहीं होता अर्थात् ध्याता आत्मा को छोड़कर अन्य किसी वस्तु का अवलम्बन नहीं लेता इसलिए ध्याता यही ध्यान है ऐसा कहा है निश्चयनय की दृष्टि से ध्यान, ध्याता, ध्येय और ध्यान के साधनों का कोई विकल्प नहीं उठता है - ऐक्यता है ।। २८३ ।। (श्री रामसेनाचार्य विरचित श्री तत्वानुशासन श्लोक ७० )
* ध्याति का लक्षण :
इष्टे ध्येये स्थिरा बुद्धिर्या स्यात् सन्तान - वर्तिनी । ज्ञानाऽन्तराऽपरामृष्टा सा ध्यातिर्ध्यानमीरिता ।।७२।।
अर्थ :- संतानक्रमे अर्थात् प्रवाह रूप से चली आ रही बुद्धि अपने इष्टध्येय में स्थिर हुयी तो अन्य को जानने में स्पर्श नहीं करती इसी को ध्यातिरूप ध्यान कहने में आता है ।
भावार्थ :- निश्चयनय से शुद्ध स्वात्मा ही ध्येय है । और प्रवाहरूप से शुद्ध स्वात्मा में वर्तने वाली बुद्धि जब आत्मा में स्थिर होती है तब वह बुद्धि-ज्ञान-अन्य कोई पदार्थ को स्पर्श नहीं करती ऐसी ध्यानारुढ़ बुद्धि अर्थात् ध्याति ही ध्यान कहने में आती है । । २८४ ।।
(श्री रामसेनाचार्य विरचित श्री तत्वानुशासन श्लोक ७२ )
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* मैं जाननेवाला और लोकालोक ज्ञेय-ऐसा किसने कहा है ?*
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