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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है श्री तत्वानुशासन * तदर्थानिन्द्रियैर्गु हणन्मुह्यति द्वेष्टि रज्यते। ततो बद्धो भ्रमत्येव मोहव्यूह-गतः पुमान।।१९।। अर्थ :- इस प्रकार इन्द्रियों के विषयों को इन्द्रियों द्वारा ग्रहण करता हुआ जीव राग करता है, द्वेष करता है। तथा मोह को प्राप्त होता है। और इन रागद्वेष-मोहरूप प्रवृत्तियों द्वारा नये कर्म से बंधता है। इस प्रकार मोह की सेना से घिरा हुआ और उसके चक्कर में पड़ा हुआ फँसा हुआ-यह जीव परिभ्रमण कर रहा है।।२८०।।। (श्री रामसेनाचार्य विरचित श्री तत्वानुशासन श्लोक १९) * यो मध्यस्थ: पश्यति जानात्यात्मानमात्मनात्मन्याऽऽत्मा। दृगवगमचरणरूपः स निश्चयान्मुक्तिहेतुरिति हि जिनोक्तिः।।३२।। अर्थ :- जो दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप आत्मा मध्यस्थभाव से आत्मा को आत्मा में देखता है जानता है-वह निश्चय से स्वयम् मुक्ति का कारण बनता है। ऐसा सर्वज्ञदेव जिनवर की वाणी में कहा हैं।।२८१।।। (श्री रामसेनाचार्य विरचित श्री तत्वानुशासन श्लोक ३२) * गुप्तेन्द्रिय-मना ध्याता ध्येयं वस्तु यथास्थितम्। ऐकाग्र-चिंतनं ध्यानं निर्जरा-संवरौ फलम्।।३८।। अर्थ :- इन्द्रियों तथा मनोयोग का निग्रह करने वाला ध्याता कहलाता है। यथावस्थित वस्तु ध्येय कहलाती है। एकाग्रचिंतन वह ध्यान है। और ‘फलरूप' तथा संवर भाव होता है। यह धर्मध्यान की १२२ * मैं पर को मारता हूँ, मैं पर को जानता हूँ-समकक्षी पाप है* Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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