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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
श्री तत्वानुशासन * तदर्थानिन्द्रियैर्गु हणन्मुह्यति द्वेष्टि रज्यते।
ततो बद्धो भ्रमत्येव मोहव्यूह-गतः पुमान।।१९।।
अर्थ :- इस प्रकार इन्द्रियों के विषयों को इन्द्रियों द्वारा ग्रहण करता हुआ जीव राग करता है, द्वेष करता है। तथा मोह को प्राप्त होता है। और इन रागद्वेष-मोहरूप प्रवृत्तियों द्वारा नये कर्म से बंधता है। इस प्रकार मोह की सेना से घिरा हुआ और उसके चक्कर में पड़ा हुआ फँसा हुआ-यह जीव परिभ्रमण कर रहा है।।२८०।।।
(श्री रामसेनाचार्य विरचित श्री तत्वानुशासन श्लोक १९)
* यो मध्यस्थ: पश्यति जानात्यात्मानमात्मनात्मन्याऽऽत्मा।
दृगवगमचरणरूपः स निश्चयान्मुक्तिहेतुरिति हि जिनोक्तिः।।३२।।
अर्थ :- जो दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप आत्मा मध्यस्थभाव से आत्मा को आत्मा में देखता है जानता है-वह निश्चय से स्वयम् मुक्ति का कारण बनता है। ऐसा सर्वज्ञदेव जिनवर की वाणी में कहा हैं।।२८१।।।
(श्री रामसेनाचार्य विरचित श्री तत्वानुशासन श्लोक ३२)
* गुप्तेन्द्रिय-मना ध्याता ध्येयं वस्तु यथास्थितम्।
ऐकाग्र-चिंतनं ध्यानं निर्जरा-संवरौ फलम्।।३८।।
अर्थ :- इन्द्रियों तथा मनोयोग का निग्रह करने वाला ध्याता कहलाता है। यथावस्थित वस्तु ध्येय कहलाती है। एकाग्रचिंतन वह ध्यान है। और ‘फलरूप' तथा संवर भाव होता है। यह धर्मध्यान की
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* मैं पर को मारता हूँ, मैं पर को जानता हूँ-समकक्षी पाप है*
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