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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
अनेक संकल्प-विकल्प समूह रूप जो मन और शुद्धात्मतत्व का अनुभूति से भिन्न जो राग, द्वेष, मोहादिरूप सब विभाव ये सब आत्मा से जुदे हैं, तथा वीतराग परमानंद सुखरूप अमृत से पराड् मुख जो समस्त चतुर्गति के महान् दुःखदायी दुःख वे सब जीव-पदार्थ से भिन्न हैं। ये सभी अशुद्धनिश्चयनयकर आत्म-ज्ञान के अभाव से उपार्जन किये हुए कर्मों से जीव के उत्पन्न हुए हैं। इसलिये ये सब अपने नहीं हैं, कर्मजनित हैं। यहां पर परमात्म-द्रव्य से विपरीत जो पांचों इन्द्रियों को आदि लेकर सब विकल्प-जाल हैं, वे तो त्यागने योग्य हैं, उससे विपरीत पांचों इन्द्रियों के विषयों की अभिलाषा को आदि लेकर सब विकल्प-जालों से रहित अपना शुद्धात्मतत्व वही परमसमाधि के समय साक्षात् उपादेय है। यह तात्पर्य जानना।।२७९-२।।
(श्री परमात्मप्रकाशः, गाथा ६३ का भावार्थ )
* जो कम्मजादमइओ सहावणाणस्स खंडदूसयरी।
सो तेण दु अराणाणी जिणशासणदूसगो भणिदे।। जिसकी बुद्धि कर्म ही में उत्पन्न होती है ऐसा पुरुष स्वभावज्ञान जो केवल ज्ञान उसको खंड रूप दूषण करने वाला है, इन्द्रिय ज्ञान खंडखंड रूप है, अपने-अपने विषय को जानता है, जो जीव इतना मात्र ही ज्ञान को मानता है इस कारण से ऐसा मानने वाला अज्ञानी है जिनमत को दूषण करता है। ( अपने में महादोष उत्पन्न करता है।) ।।२७९-३।।
(श्री अष्ट पाहुड-मोक्षपाहुड, गाथा ५६, श्री कुंदकुंदाचार्य देव)
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* इन्द्रियज्ञान के निषेध बिना उपयोग अंतर्मुख नहीं होता है
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