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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
यहाँ पर कोई प्रश्न करता है कि विभाव परिणाम को जीवस्वरूप से भिन्न कहा सो भिन्न का भावार्थ तो मैं समझा नहीं। भिन्न कहने पर, भिन्न हैं। सो वस्तुरूप है कि भिन्न हैं सो अवस्तुरूप हैं ? उत्तर इस प्रकार है कि-अवस्तुरूप हैं। “ तेन एव अन्तस्तत्वत: पश्यतः अमी दृष्टाः नोस्युः” ( तेन एव) उसी कारण से ( अन्तस्तत्वतः पश्यतः) शुद्ध स्वरूप का अनुभवशील है जो जीव उसको ( अमी) विभाव परिणाम ( दृष्टा) दृष्टिगोचर (नो स्युः) नहीं होते। “ परं एकं दृष्टं स्यात्” ( परं) उत्कृष्ट है। ऐसा (एकं) शुद्धचैतन्य द्रव्य ( दृष्टं) दृष्टिगोचर ( स्यात् ) होता है। भावार्थ इस प्रकार है कि वर्णादिक और रागादिक विद्यमान दिखलायी पड़ते हैं तथापि स्वरूप अनुभवने पर स्वरूपमात्र है, विभावपरिणति रूप वस्तु तो कुछ नहीं।।२७९ ।।
(श्री समयसार कलश टीका, कलश ३७, पांडे श्री राजमल जी कृत) * इस कारण से इन्द्रिय ज्ञान के द्वारा सर्वज्ञ नहीं हो सकता। इसीलिये ही अतीन्द्रिय ज्ञान की उत्पत्ति का कारण जो रागद्वेषादि विकल्प रहित स्वसंभेदन ज्ञान है उसको छोड़कर पंचेन्द्रियों के सुख के कारण इन्द्रिय ज्ञान में तथा नाना मनोरथ के विकल्प जाल स्वरूप मन सम्बन्धी ज्ञान में जो प्रीति करते हैं वे सर्वज्ञ पद को नहीं पाते हैं, ऐसा सूत्र का अभिप्राय है।।२७९-१।।
( श्री प्रवचनसार, गाथा ४०, श्री जयसेन आचार्य जी) * पंच वि इंदिय अण्णु मणु वि सयल-विभाव।
जीवहँ कम्मइँ जणिय जिय अण्णु वि चउगइ-ताव।।६३।। :-इन्द्रिय रहित शुद्धात्मा से विपरीत जो स्पर्शन आदि पांच इन्द्रियाँ शुभ-अशुभ , संकल्प-विकल्प से रहित आत्मा से विपरीत
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* इन्द्रियज्ञान के निषेध बिना उपयोग अंतर्मख नहीं होता है*
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