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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
ज्ञान।।२७७।।
(श्री पंचाध्यायी, पूर्वाद्ध , श्री मक्खनलाल जी गाथा ५५८ ) * वर्णाद्या वा रागमोहादयो वा
भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः। तेनैवांतस्तत्वत: पश्यतोऽमी नो दृष्टाः स्युर्दृष्टमेकं परं स्यात्।।३७।।
अर्थ :- जो वर्णादिक अथवा रागमोहादिक भाव कहे वे सब ही इस पुरुष (आत्मा) से भिन्न है इसलिए अन्तर्दृष्टि से देखने वाले को यह सब दिखायी नहीं देते, मात्र एक सर्वोपरि तत्व ही दिखायी देता हैकेवल एक चैतन्य भावस्वरूप अभेदरूप आत्मा ही दिखायी देता है।
भावार्थ :- परमार्थनय अभेद ही है इसलिए इस दृष्टि से देखने पर भेद नहीं दिखायी देता; इस नय की दृष्टि में पुरुष चैतन्यमात्र ही दिखायी देता है। इसलिए वे समस्त ही वर्णादिक तथा रागादिक भाव पुरुष से भिन्न ही हैं।।२७८ ।।
(श्री समयसार जी, कलश ३७, श्री अमृतचंद्राचार्य,
भावार्थ पंडित श्री जयचंद्र जी छावड़ा) * खण्डान्वय सहित अर्थ :- “अस्य पुंसः सर्व एव भावा भिन्नाः” ( अस्य) विद्यमान है ऐसे (पुंसः) शुद्धचैतन्यद्रव्य से (सर्व) जितने हैं वे सब (भावाः) अशुद्धविभाव परिणाम (एव) निश्चय से ( भिन्नाः) जीव स्वरूप से निराले हैं। वे कौन से भाव ? “वर्णाद्या वा रागमोहादयो वा” ( वर्णाद्याः) एक कर्म अचेतन शुद्ध पुद्गलपिण्डरूप हैं वे तो जीव के स्वरूप से निराले ही है (वा) एक तो ऐसा है कि (रागमोहादयः) विभावरूप अशुद्धरूप है, देखने पर चेतन जैसे दिखते हैं, ऐसे जो राग-द्वेष-मोहरूप जीव सम्बन्धी परिणाम वे भी शुद्धजीवस्वरूप को अनुभवने पर जीवस्वरूप से भिन्न है।
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*इन्द्रियज्ञान पर की प्रसिद्धि करता है
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