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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है होता।।२७४।।
(श्री प्रवचनसार जी, गाथा २३६ , टीका श्री अमृतचंद्राचार्य) * भावार्थ :- इन्द्रियजन्य ज्ञान कर्मोदय-उपाधि सहित है। और कर्मोदय-उपाधि दुःखरूप है। और कर्म बंध का कारण है इसलिये यह ज्ञान दुःखदायक ही है।।२७५ ।।। (श्री पंचाध्यायी, उत्तरार्ध, गाथा ३०५-३०६ का भावार्थ
पं. श्री मक्खनलालजी)
* विशेषार्थ :- यहाँ इन्द्रिय निमित्तक ज्ञान में दोष बतलाकर वह दुःखरूप कैसे है यह बतलाया गया है। यह तो स्पष्ट ही है कि इन्द्रियज्ञान स्वभावोत्थ न होकर विविध कारण कलापों के मिलने पर ही होता है, अन्यथा नहीं होता, इसलिये वह व्याकुलता का कारण होने से दुःखरूप है। अधिकतर देखा तो यहाँ तक जाता है कि मिथ्यात्व के सद्भाव में जीव की जो नाना प्रकार से दुर्दशा होती है उसमें इसका बड़ा हाथ रहता है। संसारी जीव पहले विषयों को ज्ञान द्वारा जानता है
और तब उसमें राग-द्वेष करता है। इसलिये अनर्थ परम्परा की जड़ यह इन्द्रियज्ञान ही है। अतः यह भी हेय है। बुद्धिमान इसका कभी भी आदर नहीं करता। किन्तु वह अविनाशी, निश्चल, पर निरपेक्ष ज्ञान के लिये सतत् प्रयत्नशील है।।२७६ ।। ___ (श्री पंचाध्यायी, उत्तरार्ध, गाथा ३०६ का विशेषार्थ
__पं. श्री फूलचन्द्र जी)
* ज्ञान अर्थविकल्पात्मक होता है अर्थात् ज्ञान स्व–पर पदार्थ को विषय करता है इसलिए ज्ञान सामान्य की अपेक्षा से ज्ञान एक ही है। क्योंकि अर्थ विकल्पपना सभी ज्ञानों में है परन्तु विशेष-विशेष विषयों की अपेक्षा से उस ही ज्ञान के दो भेद हो जाते हैं, (१) सम्यकज्ञान (२) मिथ्या
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* पर ज्ञेय के लक्ष से इन्द्रियज्ञान प्रगट होता है*
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