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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
इसलिए वे अवधिचक्षु हैं; अथवा वे भी मात्र रूपी द्रव्यों को देखते हैं इसलिए उन्हें इन्द्रिय चक्षु वालों से अलग न किया जाय तो, इन्द्रियचक्षु ही हैं। इस प्रकार यह सभी संसारी मोह से उपहत होने के कारण ज्ञेयनिष्ठ होने से, ज्ञेयनिष्ठता का मूल जो शुद्धात्मतत्व का संवेदन उससे साध्य (सधनेवाला) ऐसा सर्वतः चक्षुपना उनके सिद्ध नहीं होता।
अब, उस (सर्वतः चक्षुपने) की सिद्धि के लिए भगवंत श्रमण आगमचक्षु होते हैं। यद्यपि ज्ञेय और ज्ञान का पारस्परिक मिलन हो जाने से उन्हें भिन्न करना अशक्य है (अर्थात् ज्ञेयों ज्ञान में ज्ञात न हों ऐसा करना अशक्य है) तथापि वे उस आगम-चक्षु से स्वपर का विभाग करके, महामोह को जिन्होंने भेद डाला है ऐसे वर्तते हुए परमात्मा को पाकर, सतत ज्ञाननिष्ठ ही रहते हैं।।२७३।।।
(श्री प्रवचनसार जी, गाथा २३४ टीका श्री अमृतचंद्राचार्य) * टीका :- इस लोक में वास्तव में, स्यात्कार जिसका चिन्ह है ऐसे आगमपूर्वक तत्वार्थश्रद्धानलक्षण वाली दृष्टि से जो शून्य हैं उन सभी को प्रथम तो संयम ही सिद्ध नहीं होता, क्योंकि (१) स्वपर के विभाग के अभाव के कारण काया और कषायों के साथ एकता का अध्यवसाय करने वाले ऐसे वे जीव विषयों की अभिलाषा का निरोध नहीं होने से छह जीवनिकाय के घाती होकर सर्वतः ( सब ओर से ) प्रवृत्ति करते हैं, इसलिए उनके सर्वतः निवृत्ति का अभाव है। ( अर्थात् किसी भी ओर से-किंचित्मात्र भी निवृत्ति नहीं है) तथापि (२) उनके परमात्मज्ञान के अभाव के कारण ज्ञेय समूह को क्रमशः जानने वाली निरर्गल ज्ञप्ति होने से ज्ञानरूप आत्मतत्व में एकाग्रता की प्रवृत्ति का अभाव है। (इस प्रकार उनके संयम सिद्ध नहीं होता) और (इस प्रकार) जिनके संयम सिद्ध नहीं होता उन्हें सुनिश्चित एकाग्रयपरिणतता रूप श्रामण्य ही-जिसका दूसरा नाम मोक्षमार्ग है वही-सिद्ध नहीं
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* इन्द्रियज्ञान में आकुलता हैं, अतीन्द्रिय ज्ञान में निराकुल आनन्द है
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