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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है * आयासं पि ण णाणं जम्हायासं ण याणदे किंचि। तम्हायासं अण्णं अण्णं णाणं जिणा बेंति।।४०१।। आकाश है नहिं ज्ञान, क्योंकि आकाश कुछ जाने नहीं। इस हेतु से आकाश अन्य रु ज्ञान अन्य प्रभू कहे।।४०१।। आकाश भी ज्ञान नहीं है क्योंकि आकाश कुछ जानता नहीं है, इसलिये ज्ञान अन्य है, आकाश अन्य है-ऐसा जिनवर कहते हैं।।२५१।। (श्री समयसार जी गाथा ४०१) णज्झवसाणं णाणं अज्झवसाणं अचेदणं जम्हा। तम्हा अण्णं णाणं अज्झवसाणं तहा अण्णं ।।४०२।। रे! ज्ञान अध्यवसान नहिं, क्योंकि अचेतन रूप है। इस हेतु से है ज्ञान अन्य रु अन्य अध्यवसान है।।४०२।। अध्यवसान ज्ञान नहीं है क्योंकि अध्यवसान अचेतन है, इसलिये ज्ञान अन्य है तथा अध्यवसान अन्य है-ऐसा जिनदेव कहते हैं।।२५२ ।। (श्री समयसार जी गाथा ४०२) * हे अज्ञानी जीव! शुभ या अशुभ शब्द तुमको यह नहीं कहता है कि तुम मुझे सुनो और न वह शब्द तेरे द्वारा ग्रहण किये जाने के लिये आता है। शब्द-श्रोत्रइन्द्रिय का केवल विषयरूप होने से श्रोत में आता है। ___शुभ या अशुभ रूप तुझको यह नहीं कहता है कि तू मुझे देख और न वह रूप तेरे से ग्रहण किये जाने के लिए आता है, रूप-चक्षु इन्द्रिय का विषय होने से चक्षु में झलकता है। १०९ * सम्यग्ज्ञान का लक्षण-परलक्ष अभावात् Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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