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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
शुभ या अशुभ गंध तुझको यह नहीं कहती कि तू मुझे सूंघ और न वह गंध तेरे द्वारा ग्रहण किये जाने के लिये आती है। किन्तु गंध घ्राणेन्द्रिय का विषय है इससे नासिका द्वारा मालूम होती है।
अशुभ या शुभ रस तुझको यह नहीं कहता कि तू मेरा स्वाद ले और न वह रस तेरे से ग्रहण किये जाने को आता है। रस रसना इन्द्रिय का विषय है इससे रसना से मालूम होता है।
अशुभ या शुभ स्पर्श तुझको यह नहीं कहता कि तू मुझे स्पर्श कर और न वह तेरे से ग्रहण किये जाने के लिए आता है। स्पर्श शरीर का विषय है। इससे काया द्वारा मालूम होता है।।२५३ ।। । (श्री समयसार, श्री जयसेनाचार्य टीका, ब्र. शीतल प्रसाद जी
का अनुवाद, गाथा ४०१ से ४०५ सामान्यार्थ) * भावार्थ इस प्रकार है कि जीववस्तु का जो प्रत्यक्ष रूप से आस्वाद, उसको नाम से आत्मानुभव ऐसा कहा जाय अथवा ज्ञानानुभव ऐसा कहा जाय। नामभेद है, वस्तुभेद नहीं है। ऐसा जानना कि आत्मानुभव मोक्षमार्ग है। इस प्रसंग में और भी संशय होता है कि कोई जानेगा कि द्वादशांगज्ञान कुछ अपूर्व लब्धि है। उसके प्रति समाधान इस प्रकार है कि द्वादशांगज्ञान भी विकल्प है। उसमें भी ऐसा कहा है कि शुद्धात्मानुभूति मोक्षमार्ग है, इसलिए शुद्धात्मानुभूति के होने पर शास्त्र पढ़ने की कुछ अटक नहीं है।।२५४ ।।
(श्री समयसार कलश टीका, कलश १३ की टीका में से) * ज्ञान तो बराबर शुद्धजीव का स्वरूप है; इसलिये ( हमारा) निज आत्मा अभी (साधक दशा में) एक (अपने) आत्मा को नियम से (निश्चय से) जानता है। और, यदि वह ज्ञान प्रगट हुई सहज दशा द्वारा सीधा
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* मैं धर्मादि द्रव्य को जानता हूँ, यह अध्यवसान है*
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