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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
आत्मा भी ( अपने स्थान से छूटकर ), [ चक्षुर्विषयम् आगतं] चक्षु-इन्द्रिय के विषय में आये हुए [रूपम् ] रूप को [ विनिर्ग्रहीतुं न एति] ग्रहण करने को नहीं जाता।।
[अशुभः वा शुभः गंधः ] अशुभ अथवा शुभ गंध [ त्वां न भणति] तुझसे यह नहीं कहती कि [ माम् जिघ्र इति] 'तू मुझे सूंघ'; [ सः एव च] और आत्मा भी [घ्राणविषयम् आगतं गंधम् ] घ्राणइन्द्रिय के विषय में आई हुई गंध को [ विनिर्ग्रहीतुं न एति] ( अपने स्थान से च्युत होकर ) ग्रहण करने नहीं जाता।
[अशुभः वा शुभः रसः] अशुभ अथवा शुभ रस [ त्वां न भणति] तुझसे यह नहीं कहता कि [ माम् रसय इति] ' तू मुझे चख'; [ सः एव च] और आत्मा भी [ रसनविषयम् आगतं तु रसम् ] रसना-इन्द्रिय के विषय में आये हुये रस को (अपने स्थान से च्युत होकर), [ विनिर्ग्रहीतुं न एति ] ग्रहण करने नहीं जाता।।२३७।।।
(श्री कुंदकुंदाचार्य। श्री समयसार गाथा , ३७६ से ३७८) * असुहो सुहो व फासो ण तं भणदि फसस मं ति सो चेव।
ण य एदि विणिग्गहिदुं कायविसयमागदं फासं।।३७९ ।। शुभ या अशुभ जो स्पर्श वो 'तू स्पर्श मुझको' नहीं कहे। अरु जीव भी नहिं ग्रहण जावे कायगोचर स्पर्श को।।३७९ ।। [ अशुभः वा शुभः स्पर्शः ] अशुभ अथवा शुभ स्पर्श [ त्वां न भणति] तुझसे यह नहीं कहता कि [ माम् स्पर्श इति] 'तू मुझे स्पर्श कर'; [ सः एव च ] और आत्मा भी [कायविषयम् आगतं स्पर्शम् ] काय के (स्पर्शन्द्रिय के) विषय में आये आये हुए स्पर्श को (अपने स्थान से च्युत होकर ), [ विनिर्ग्रहीतुं न एति ] ग्रहण करने नहीं जाता।।२३८ ।।
(श्री समयसार जी, श्री कुंदकुंदाचार्य गाथा ३७९)
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*इन्द्रियज्ञान ज्ञेय का भाव है।
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