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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
कर्म रूप व्यवहार कथन को दृष्टांत द्वारा समझाते हैं-जैसे सफेदी करने वाली खड़िया-मिट्टी अन्य भीत आदि वस्तु को सफेद करने वाली है इसलिये खड़िया है ऐसी बात नहीं किन्तु वह तो अपने आप ही खड़िया-मिट्टी है भीत से भिन्न वस्तु है। इसी प्रकार जो ज्ञायक है जानने वाला है वह परद्रव्य को जानने वाला है इसलिये ज्ञायक है ऐसा नहीं है किन्तु वह तो सहज ज्ञायक रूप ही है। इसी प्रकार उपरोक्त उदाहरण के समान जो दर्शक है वह भी पर द्रव्य को देखने वाला होने से दर्शक नहीं है किन्तु वह तो अपने सहज स्वभाव से ही दर्शक है।।२३३।।
(श्री जयसेनाचार्य टीका, श्री समयसार गाथा ३८५, ३८६ का अर्थ) * ज्ञानात्मा भी निश्चय के द्वारा घटपटादि ज्ञेय पदार्थों का ज्ञायक नहीं होता हैं अर्थात उन्हें जानते हुए भी, उनसे तन्मय नहीं होता। फिर क्या होता है ? कि ज्ञायक तो ज्ञायक ही होता है। अपने स्वभाव में रहता है।।२३४ ।।
(श्री जयसेनाचार्य टीका , श्री समयसार गाथा ३८५ की टीका) * स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्दादिरूप परिणमते पुदगल आत्मा से कहीं यह नहीं कहते हैं कि 'तू हमें जान,' और आत्मा भी अपने स्थान से छुटकर उन्हें जानने को नहीं जाता। दोनों सर्वथा स्वतंत्रतया अपने अपने स्वभाव से ही परिणमित होते हैं। इस प्रकार आत्मा पर के प्रति उदासीन ( –सम्बन्ध रहित, तटस्थ) है, तथापि अज्ञानी जीव स्पर्शादि को अच्छे-बुरे मानकर रागी-द्वेषी होता है यह उसका अज्ञान है।।२३५ ।।
(श्री समयसार जी, गाथा ३७३ से ३८२ का शीर्षक) * असुहो सुहो व सद्दो ण तं भणदि सुणसु मं ति सो चेव। ण य एदि विणिग्गहिदुं सोदविसयमागदं सदं।।३७५ ।।
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*इन्द्रियज्ञान स्व और पर को जानने का साधन नहीं है
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