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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
तो नियमित पक्ष होने का कारण आत्मा मे जो अनुपचार से आत्मा को जाननेरूप आत्मज्ञता पाई जाती है उसका अभाव हो जायेगा अर्थात् आत्मा में आत्मज्ञता सिद्ध नहीं हो सकेगी। अतः अनुपचरितपक्ष निरपेक्ष सर्वथा उपचरित पक्ष मानना अर्थात् आत्मा को सर्वथा परपदार्थो का ही ज्ञाता दृष्टा युक्तिसंगत नहीं है ।। २३० ।।
(श्री देवसेनाचार्य कृत, आलाप पद्धति, पृष्ठ ११२ )
* यह स्वसंवेदन क्या है ? इसके विषय में आत्मानुशासन में भी एक श्लोक आया है:
वेद्यत्वं वेदकत्वं च यत्स्वस्य स्वेन योगिनः । तत्स्वसंवेदनं प्राहुरात्मनोऽनुभवं दृशः ।।
अर्थात् जहाँ पर योगी के ज्ञान में ज्ञेयपना ज्ञायकपना ये दोनों अपने आप में ही हों, ऐसी अनन्य अवस्था का नाम स्वसंवेदन है। इसी को आत्मानुभव या स्वानुभव प्रत्यक्ष भी कहते हैं।।२३१।।
(श्री जयसेनाचार्य टीका, श्री समयसार, पृष्ट २०२ )
* 'ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठितं; इस अमृतचन्द्राचार्य के वचनानुसार जब छद्मस्थ आत्मा का ज्ञान ज्ञान को ही विषय करने वाला हो जाता है उस समय उसमें अपने आपके सिवाय और किसी का भान भी नहीं रहता। तब उसको ज्ञान गुण या ज्ञानभाव कहते हैं। स्वरूपाचरण, स्वसंवेदन, आत्मानुभव, शुद्धोपयोग और शुद्ध नय आदि सब इसी के नाम हैं। इस ज्ञान गुण को प्राप्त किये बिना आज तक किसी को न तो मोक्ष प्राप्त हुआ और न हो सकता है । । २३२ ।।
(श्री जयसेनाचार्य टीका, श्री समयसार गाथा २२२ के विशेष में से )
* अब यहां अभिन्न कर्ता कर्म रूप निश्चय कथन को और भिन्न कर्ता
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* इन्द्रियज्ञान का लक्ष पर के ऊपर होता है*
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