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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
* भावार्थ :- शुद्धनय से आत्मा का एक चेतनामात्र स्वभाव हैं। उसके परिणाम जानना, देखना, श्रद्धा करना, निवृत्त होना इत्यादि हैं। वहा निश्चयनय से विचार किया जाये तो आत्मा को परद्रव्य का ज्ञायक नहीं कहा जा सकता, दर्शक नहीं कहा जा सकता, श्रद्धान करने वाला नहीं कहा जा सकता, त्याग करने वाला नहीं कहा जा सकता; क्योंकि परद्रव्य के और आत्मा के निश्चय से कोई भी सम्बन्ध नहीं है। जो ज्ञान, दर्शन, श्रद्धान, त्याग इत्यादि भाव हैं, वे स्वयं ही हैं; भावभावक का भेद कहना वह भी व्यवहार है । निश्चय से भाव और भाव करने वाले का भेद नहीं है ।।२२८ ।।
(श्री समयसार जी, गाथा ३५६ से ३६५ के भावार्थ में से, पं. श्री जयचंद्र जी छावड़ा ) * जो उपचरितस्वभाव स्वभाव से ही होता है उसको स्वाभाविक उपचरितस्वभाव कहते हैं जैसे- सिद्ध जीवों के परज्ञता और परदर्शकत्वस्वभाव। क्योंकि निश्चयनय से आत्मा ( मुक्तात्मा ) अपनी आत्मा का ही ज्ञाता दृष्टा माना गया हैं। पर पदार्थो का ज्ञाता दृष्टा नहीं। इसलिए आत्मा जो परपदार्थो का ज्ञाता दृष्टा कहा गया है वह उपचार से ही कहा जाता है वास्तव में नहीं ।। २२९ ।।
(श्री देवसेनाचार्य कृत, आलाप पद्धति, पृष्ठ ९९ )
* सर्वथा उपचरितपक्ष में दोष ।
उपचरितैकान्तपक्षेऽपि नात्मज्ञता सम्भवति नियमितपक्षत्वात्।
अर्थ :- उपचरित एकान्तपक्ष में भी नियमित पक्ष होने से आत्मा के आत्मज्ञता सम्भव नहीं होती है।
भावार्थ :– यदि उपचरितस्वभाव से आत्मा सर्वथा पर पदार्थों का ही ज्ञाता दृष्टा है आत्मा का नहीं ऐसा उपचरित एकान्तपक्ष माना जायेगा
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* मोहराजा इन्द्रियज्ञान को ज्ञान कहता है, सर्वज्ञदेव उसको ज्ञेय कहते है
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