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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
करता है। एक विशेष-( तस्य) ज्योत्स्ना के प्रसार के सम्बन्ध से (भूमिःन अस्ति) भूमि ज्योत्स्नारूप नहीं होती। भावार्थ इस प्रकार है कि जिस प्रकार ज्योत्स्ना फैलती है, समस्त भूमि श्वेत होती है तथापि ज्योत्स्ना का भूमिका सम्बन्ध नहीं है उसी प्रकार ज्ञान समस्त ज्ञेय को जानता है तथापि ज्ञान का ज्ञेय का सम्बन्ध नहीं है। ऐसा वस्तु का स्वभाव है।।२२५ ।।
(श्री समयसार कलश टीका, कलश २१६ में से) * परद्रव्यरूप ज्ञेय पदार्थ उनके भाव से परिणमित होते हैं और ज्ञायक आत्मा अपने भावरूप परिणमन करता है; वे एक दूसरे का परस्पर कुछ नहीं कर सकते। इसलिये यह व्यवहार से ही माना जाता है कि 'ज्ञायक परद्रव्यों को जानता है' निश्चय से ज्ञायक तो बस ज्ञायक ही है।।२२६ ।।
(श्री समयसार जी कलश २१४ भावार्थ में से) * ज्यों सेटिका नहीं अन्य की, है सेटिका बस सेटिका।
ज्ञायक नहीं त्यों अन्य का , ज्ञायक अहो ज्ञायक तथा।।३५६ ।।
अर्थ :- जैसे खड़िया-मिट्टी या पोतने का चूना या कलई पर की ( दीवाल आदि की) नहीं है, कलई वह तो कलई ही है, उसी प्रकार ज्ञायक ( जानने वाला आत्मा) पर का (परद्रव्य का) नहीं है, ज्ञायक वह तो ज्ञायक ही है।
ज्यों सेटिका नहीं अन्य जी, है सेटिका बस सेटिका। दर्शक नहीं त्यों अन्य का, दर्शन अहो दर्शन तथा।।३५७ ।।
अर्थ :- जैसे कलई पर की नहीं है, कलई वह तो कलई ही है, उसी प्रकार दर्शक ( देखने वाला आत्मा) पर का नहीं है, दर्शक वह तो दर्शक ही है।।२२७।।
(श्री समयसार जी, गाथा ३५६-३५७ का अर्थ )
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* इन्द्रियज्ञान की रुचि अर्थात् इन्द्रिय की रुचि है*
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