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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
आत्मद्रव्य उसकी ( उपलब्धे:) प्रत्यक्ष प्राप्ति होने से।।२२३ ।।
(श्री समयसार कलश टीका, कलश १८८ में से)
* भावार्थ इस प्रकार है कि कृपासागर हैं सूत्र के कर्ता आचार्य वे ऐसा कहते हैं कि नाना प्रकार के विकल्प करने से साध्यसिद्धि तो नहीं है। कैसा है नाना प्रकार के विकल्प करने वाला जन ? “ अधः अधः प्रपतन्” जैसे जैसे अधिक क्रिया करता है, अधिक अधिक विकल्प करता है वैसे वैसे अनुभव से भ्रष्ट से भ्रष्ट होता है। तिस कारण से " जनः ऊर्ध्व ऊर्ध्व किं न अधिरोहति (जनः) समस्त संसारी जीवराशि (ऊर्ध्व ऊर्ध्व) निर्विकल्प से निर्विकल्प अनुभवरूप (किं न अधिरोहति) क्यों नहीं परिणमता है। कैसा है जन? “निःप्रमाद" निर्विकल्प हैं। कैसा हैं निर्विकल्प अनुभव ? “यत्र प्रतिक्रमणं विषं एव प्रणीतं” ( यत्र) जिसमें (प्रतिक्रमणं) पठन पाठन स्मरण चिन्तवन स्तुति वन्दना इत्यादि अनेक क्रियारूप विकल्प (विषं एवं प्रणीतं) विष के समान कहा है। “ तत्र अप्रतिक्रमणं सुधा कुट: एव स्यात्” ( तत्र) उस निर्विकल्प अनुभव में ( अप्रतिक्रमणं) न पढ़ना, न पढ़ाना, न वंदना, न निन्दना ऐसा भाव ( सुधा कुट: एव स्यात् ) अमृत के निधान के समान है। भावार्थ ऐसा है कि निर्विकल्प अनुभव सुखरूप है, इसलिये उपादेय है, नाना प्रकार के विकल्प आकुलतारूप हैं। इसलिये हेय हैं।२२४ ।।
(श्री समयसार कलश टीका, कलश १८९ में से) * सर्व काल (ज्ञानं ) अर्थग्रहणशक्ति (ज्ञेयं) स्वपरसम्बन्धी समस्त ज्ञेय वस्तु को (कलयति) एक समय में द्रव्य-गुण-पर्याय भेदयुक्त जैसी है उस प्रकार जानता है। एक विशेष-(अस्य) ज्ञान के सम्बन्ध से (ज्ञेयं न अस्ति) ज्ञेय वस्तु ज्ञान से सम्बन्धरूप नहीं हैं। (एव) निश्चय से ऐसा ही है। दृष्टान्त कहते है “ज्योत्स्नारूपं भुव स्नपयति तस्य भूमिः न अस्ति एवं” (ज्योत्स्नारूपं) चन्द्रिका का प्रसार ( भुवं स्नपयति) भूमि को श्वेत
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97 * इन्द्रियज्ञान केवलज्ञान में बाधक है*
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