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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
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* और कैसा है ? “ एकत: जगत्त्रितयं स्फुरति ” ( एकत:) जीव का स्वभाव स्वपरज्ञायक है ऐसा विचार करने पर ( जगत् ) समस्त ज्ञेय वस्तु की (त्रितयं ) अतीत अनागत वर्तमान कालगोचर पर्याय ( स्फुरति ) एक समय मात्र काल में ज्ञान में प्रतिबिम्बरूप है। 'एकतः चित् चकास्ति” ( एकतः) वस्तु के स्वरूप सत्तामात्र का विचार करने पर (चित्त्) शुद्ध ज्ञानमात्र ( चकास्ति ) शोभित होता है । भावार्थ इस प्रकार है कि व्यवहार मात्र से ज्ञान समस्त ज्ञेय को जानता है, निश्चय से नहीं जानता है, अपना स्वरूपमात्र है, क्योंकि ज्ञेय के साथ व्याप्यव्यापकरूप नहीं है । । २२१ । ।
(श्री समयसार कलश टीका, कलश २७४ में से )
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* भावार्थ इस प्रकार है कि इस शास्त्र में शुद्ध जीव का स्वरूप निःसन्देहरूप से कहा है । और कैसा है ? 'आत्मना आत्मनि आत्मानं अनवरतनिमग्नं धारयत्" ( आत्मना ) ज्ञानमात्र शुद्ध जीव के द्वारा ( आत्मनि ) शुद्ध जीव में ( आत्मानं ) शुद्ध जीव को ( अनवरतनिमग्नं धारयत्) निरन्तर अनुभवगोचर करता हुआ। कैसा है आत्मा ? अविचलित-चिदात्मनि ” ( अविचलित ) सर्व काल एकरूप जो (चित्त्) चेतना वही है (आत्मनि ) स्वरूप जिसका ऐसा है ।। २२२ ।।
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(श्री समयसार कलश टीका, कलश २७६ में से )
* बुद्धिपूर्वक ज्ञान करते हुए जितना पंढ़ना विचारना चिन्तवन करना स्मरण करना इत्यादि है वह ( उन्मूलितं ) मोक्ष का कारण नहीं है ऐसा जानकर हेय ठहराया है । " आत्मनि एव चित्तं आलानितं ” ( आत्मनि एव ) शुद्धस्वरूप में एकाग्र होकर (चित्तं आलानितं ) मन को बाँधा है। ऐसा कार्य जिस प्रकार हुआ उस प्रकार कहते हैं- “ आसम्पूर्णविज्ञानघनोपलब्धेः (आसम्पूर्णविज्ञान) निरावरण केवलज्ञान उसका ( घन ) समूह जो
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* इन्द्रियज्ञान की रुचि सम्यग्दर्शन में बाधक है*
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