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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
परम्परा से ज्ञान में होने वाले ज्ञेयाकारों के कारण पदार्थ हैं; इसलिये उन ( ज्ञान की अवस्थारूप) ज्ञेयाकारों को ज्ञान में देखकर, कार्य में कारण का उपचार करके व्यवहार से ऐसा कहा जा सकता है कि पदार्थ ज्ञान में है।।२१२।।
(श्री प्रवचनसार जी, गाथा ३१ का भावार्थ) * भावार्थ इस प्रकार है-जितना नय है उतना श्रुतज्ञानरूप हैं, श्रुतज्ञान परोक्ष है, अनुभव प्रत्यक्ष है, इसलिए श्रुतज्ञान बिना जो ज्ञान है वह प्रत्यक्ष अनुभवता है। इस कारण प्रत्यक्ष रूप से अनुभवता हुआ जो कोई शुद्धस्वरूप आत्मा “ स विज्ञानैकरसः” वही ज्ञानपुञ्ज वस्तु है ऐसा कहा जाता है।।२१३।।
( श्री समयसार कलश टीका, कलश ९३ में से) * निश्चय से ( एषां) मुनीश्वरों को (ज्ञानं स्वयं शरणं) शुद्ध स्वरूप का अनुभव सहज ही आलम्बन है। कैसा है ज्ञान ? ज्ञाने प्रतिचरितं जो बाह्यरूप परिणमा था वही अपने शुद्धस्वरूप परिणमा है। शुद्ध स्वरूप का अनुभव होने पर कुछ विशेष भी है, कहते हैं-“एते तत्र निरताः परमं अमृतं विन्दन्ति” ( एते) विद्यमान जो सम्यग्दृष्टि मुनीश्वर (तत्र) शुद्ध स्वरूप के अनुभव में (निरताः) मग्न हैं वे (परमं अमृतं) सर्वोत्कृष्ट अतीन्द्रिय सुख को ( विन्दन्ति ) आस्वादते हैं।।२१४ ।।
(श्री समयसार कलश टीका , कलश १०४ में से)
* भावार्थ इस प्रकार है-ज्ञेय-ज्ञायक का सम्बन्ध दो प्रकार है-एक तो जानपनामात्र है, राग-द्वेषरूप नहीं है। यथा-केवली सकल ज्ञेय वस्तु को देखते जानते हैं परन्तु किसी वस्तु में राग-द्वेष नहीं करते। उसका नाम शुद्ध ज्ञानचेतना कहा जाता है। सो सम्यग्दृष्टि जीव के शुद्ध ज्ञानचेतना कहा जाता है। सो सम्यग्दृष्टि जीव के शुद्ध ज्ञानचेतनारूप जानपना है, इसलिए मोक्ष का कारण है-बन्ध का कारण
*इन्द्रियज्ञान आत्मा से सर्वथा भिन्न है
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