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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है किन्तु रागरूप से उसका ग्रहण करने वाला नहीं होता।।२१०।। (श्री समयसार जी, श्री जयसेनाचार्यकृत गाथा २२६) * टीका :- (अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो पाणं च णिच्छदे णाणी) जो इच्छा रहित है वह परिग्रह रहित कहलाता है अर्थात् जिसके बाह्य पदार्थों में इच्छा, मूर्छा व ममत्व परिणाम नहीं है वह अपरिग्रहवान कहा गया है। अतः इच्छा जो अज्ञानमय भावरूप है वह ज्ञानी के कभी सम्भव नहीं है। अतएव उसके पीने योग्य वस्तु की भी इच्छा नहीं हो सकती इसलिये (अपरिग्गहो दु पाणस्स जाणगो तेण सो होदि) स्वाभाविक परमानन्द सुख में संतुष्ट होकर नाना प्रकार के पानक के विषय में परिग्रह रहित होता हुआ ज्ञानी जीव तो दर्पण में आये हुए प्रतिबिम्ब के समान वस्तु स्वरूप से उस पानक का ज्ञायक ही होता है-राग से उसका ग्राहक नहीं होता है।।२११।। (श्री समयसार जी, श्री जयसेनाचार्य कृत टीका, गाथा २२७, अजमेर प्रकाशन) * भावार्थ :- दर्पण में मयूर, मन्दिर, सूर्य, वृक्ष ईत्यादि के प्रतिबिम्ब पड़ते हैं। वहाँ निश्चय से तो प्रतिबिम्ब दर्पण की ही अवस्थायें हैं, तथापि दर्पण में प्रतिबिम्ब देखकर कार्य में कारण का उपचार करके व्यवहार से यह कहा जाता है कि मयूरादिक दर्पण में हैं। इसी प्रकार ज्ञान दर्पण में भी सर्व पदार्थों के समस्त ज्ञेयाकांरो के प्रतिबिम्ब पड़ते हैं, अर्थात् पदार्थों के ज्ञेयाकारों के निमित्त से ज्ञान में ज्ञान की अवस्थारूप ज्ञेयाकार होते हैं, (क्योंकि यदि ऐसा न हो तो ज्ञान सर्व पदार्थों को नहीं जान सकेगा)। वहाँ निश्चय से ज्ञान में होने वाले ज्ञेयाकार ज्ञान की ही अवस्थायें हैं, पदार्थों के ज्ञेयाकार कहीं ज्ञान में प्रविष्ट नहीं है। निश्चय से ऐसा होने पर भी व्यवहार से देखा जाये तो ज्ञान में होने वाले ज्ञेयाकारों के कारण पदार्थों के ज्ञेयाकार हैं, और उनके कारण पदार्थ हैं-इस प्रकार ९२ * परसन्मुख हुआ ज्ञान जड़ है, अचेतन है । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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