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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है दु धम्मस्स जाणगो तेण सो होदि) इसलिए पुण्य रूप धर्म का परिग्रहवान न होकर, किन्तु पुण्य मेरा स्वरूप नहीं है ऐसा जानकर, उस पुण्य रूप से परिणाम नहीं करता हुआ तन्मय नहीं होता हुआ वह दर्पण में आये हुए प्रतिबिम्ब के समान उसका जानने वाला ही होता है।।२०८ ।। (श्री समयसार जी, श्री जयसेनाचार्य टीका तात्पर्यवृत्ति, निर्जरा अधिकार गाथा २२३, अजमेर प्रकाशन) * टीका :- ( अप्परिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णिच्छदि अधम्म) जिसके बाह्य द्रव्यों में वांछा नहीं है वह परिग्रह रहित है। इसलिये तत्वज्ञानी जीव विषय कषाय रूप अधर्म को, पाप को कभी नहीं चाहता। (अप्परिग्गहो अधम्मस्स जाणगो तेण सो होदि) इसलिए वह विषय कषायरूप पाप का ग्राहक न होता हुआ यह पाप मेरा स्वरूप नहीं है ऐसा जानकर पाप रूप से परिणमन नहीं करता हुआ वह दर्पण में आये हुए प्रतिबिम्ब के समान उसका ज्ञायक ही होता है।।२०९ ।। (श्री समयसार जी, श्री जयसेनाचार्य टीका, गाथा २२४, अजमेर प्रकाशन) * टीका :- (अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो असणं च णिच्छदे णाणी) जिसके बाह्य द्रव्यों में इच्छा, मूर्छा, ममत्व परिणाम नहीं है वह अपरिग्रहवान कहा गया है क्योंकि इच्छा अज्ञानमय भाव है इससे इसका होना ज्ञानी के सम्भव नहीं है अतः ज्ञानी के भोजन की भी इच्छा नहीं होती इसलिये वह (अपरिग्गहो दु असणस्स जाणगो तेण सो होदि) आत्मसुख में संतुष्ट होकर भोजन व तत्संबंधी पदार्थों में परिग्रह रहित होता हुआ जैसे दर्पण में आये हुये प्रतिबिम्ब के समान केवल आहार में ग्रहण करने के योग्य वस्तु का उस वस्तु के रूप से ज्ञायक ही होता है। * इन्द्रियज्ञान अशुचि है Please inform us of any errors on [email protected]
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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