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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है मेरा स्वरूप नहीं है। मेरा स्वरूप तो परम उत्तम अतीन्द्रिय आनन्दमय ज्ञानज्योति है। जब मैं भावेन्द्रियों को नियंत्रित करके अर्थात् बाह्य विषयों से हटाकर अंतर्मुख होता हूँ तब, तब मैं ज्ञानस्वरूप आत्मा को देख सकता हूँ-स्वसंवेदन से अनुभव सकता हूँ।।२०४।। (श्री समाधितंत्र, गाथा ५१ का भावार्थ) * जिसके चित्त में आत्मस्वरूप की निश्चल धारणा है उसकी एकांत से अर्थात् नियम से मुक्ति होती है। जिसकी आत्मस्वरूप में निश्चल धारणा नहीं है उसकी अवश्य ही मुक्ति नहीं होती है।।२०५।। (श्री समाधितंत्र, गाथा ७१, श्री पूज्यपादस्वामी) * एकांतिक अर्थात् अवश्य होने वाली मुक्ति उस अंतरात्मा को होती है कि जिसके चित्त में अविचल धृत्ति अर्थात् आत्मस्वरूप की धारणा हो या स्वरूप में प्रसत्ति (लीनता) हो; परन्तु जिसके चित्त में अचल धृत्ति (धारणा) नहीं होती, उसको अवश्यम्भावी मुक्ति नहीं होती।।२०६ ।। (श्री समाधितंत्र, गाथा ७१ टीका, श्री प्रभाचंद्र जी) * जिसका उपयोग दूसरी जगह नहीं भटकता, आत्मस्वरूप में ही स्थिर होता है, उसकी नियम से मुक्ति होती है। परन्तु जिसका उपयोग एक से दूसरे में भ्रमता है और आत्मस्वरूप में स्थिर नहीं होता उसकी कभी मुक्ति नहीं होती।।२०७।। (श्री समाधितंत्र, गाथा ७१ भावार्थ में से) * टीका :- (अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णिच्छदे धम्म) जो इच्छा रहित होता है वह अपरिग्रह होता है अर्थात् जिसके बाह्य द्रव्यों की इच्छा नहीं होती अर्थात् बाह्य पदार्थों से उसका कोई लगाव नहीं होता। इससे स्वसंवेदन ज्ञानी जीव शुद्धोपयोग रूप निश्चय धर्म को छोड़कर शुभोपयोग रूप धर्म अर्थात् पुण्य को नहीं चाहता है। ( अपरिग्गहो ९० * इन्द्रियज्ञान दुःखरूप है, दुःख का कारण है" Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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